हाँ कमज़ोर है हम !

कमाल करते है न हम जैसे लोग !
तुम्हें शब्दों की परिधि में जकड़ना चाहते हैं
कोई एक निर्धारित परिभाषा कैसे दे पायेगा तुम्हारी ?
हर एहसास के साथ रूप बदलते हो तुम
कोई एक नाम कहाँ है तुम्हारा,
जिस पर सबकी सहमति हो ?
कभी प्यार, स्नेह, ममता
तो कभी प्रेम, इश्क़, मुहब्बत....
हर शख़्स ने तुम्हें गढ़ना चाहा
अपनी सहूलियत से अपने शब्दों के ढाँचे में ढालना चाहा,
और तुम्हें हर बार एक नया चोला पहना दिया..
कुछ विकृतियाँ भी जुड़ गयी इस उपक्रम में,
दूषित होता गया तुम्हारा निर्मल रूप,
फिर कुछ शब्दों का ईज़ाद किया
कभी वासना, कभी बलात्कार, कभी पिपासा,
ताकि तुम्हें एक वर्ग का आवरण पहना सकें
तुम्हारा अस्तित्त्व बचाने को
तुम्हारी पवित्रता अक्षुण्ण रखने को...
पर क्या तुम्हें चोट नहीं पहुँची ?
क्या तुम घायल नहीं हुए ?
मैंने सुनी है अक्सर दर्द भरी चीखें तुम्हारी,
देखे हैं अनगिनत घाव तुम्हारे कोमल मन पर
खरोचें तुम्हारे नाज़ुक जिस्म पर
पर सच ये भी है
कि तुम्हारे रिसते घावों को सीने की क्षमता भी
किसी और के पास नहीं
तुम्हें स्वयं ही अपना अमृत उड़ेलना होगा
उस विष पर जो नीलों सा उभरता है तुम्हारे कोमल अंगों पर,
दूध डालना होगा उस तेज़ाब पर जो
अपनी पूरी वीभत्सता में फफोले बन कर रिसता है तुम्हारे ज़ख्मों से,
अपनी चीखों को ढालना होगा ख़ूबसूरत नग्मों में,
रूहानी ग़ज़लों में,
रुबाइयों में,
वरना हम जैसे कमज़ोर लोग जी नहीं पायेंगें
और हमारी कलम ...वो तो घुट-घुट कर दम तोड़ देगी ...
क्या कहा तुमने ?
कलम कमज़ोर नहीं है !
हाँ शायद न हो जब पूरी क्षमता से उगलती है
लावा गुस्से का,
दिखाती है आईना उन कुत्सित प्रवृतियों को,
भले ही केवल चार दिन के लिए...
कटाक्ष के तीर कस-कस के मारती है
राजनीति के गलियारों की ओर,
नारे भी खूब उगलती है पर खोखले लगते हैं सभी,
निष्पक्षता की कसौटी पर...
यक़ीन जानों ये तुम्हारी रक्षा नहीं कर पाएगी,
हाँ रचेगी श्रृंगार तुम्हारा,
महिमामंडन भी करेगी तुम्हारी पवित्रता का,
तुम्हें सर का ताज़ बना देगी
पर किसी व्याभिचारी से तुम्हें नहीं बचा सकेगी,
नहीं बचा सकेगी उसके गंदे हाथों और गलत इरादों से,
तुम्हें तड़पते, सिसकते देख
रोयेगी भी, धिक्कारेगी भी
पर तुम्हारा कौमार्य नहीं बचा पाएगी...
इसलिए तो कहा मैंने
अपने दर्द का उपचार तुम्हें स्वयं करना होगा,
अपने ज़ख्मों को भी स्वयं सीना होगा।
हाँ हम जैसे लोग नहीं कर पाएंगे
बहुत कमज़ोर है हम !
©विनीता सुराना 'किरण'

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