उनकी दास्तान (1)

       
         उसकी अम्मी बूढ़ी थी और वालिद का इन्तकाल हो चुका था। दरिया के इस पार वो अपने भार्इ के साथ रहता था। उसका मकान क्या था बस एक खण्डहर था, जिसकी दीवारों को बरसात के पानी ने धो-धो कर एक-एक पत्थर को चमका दिया था। उपर छत और छज्जों पर हरी-हरी कार्इ पर सूखी पीली धूप इस तरह लटक रही थी मानों कोर्इ बुढि़या हरा दुपटटा औढ़े हो और उस पर सोने का गोटा लगा हो।

उसके बडे भार्इ ने उसकी परवरिश किसी शहज़ादे की तरह की थी और आज वो एक खूबसूरत नौजवान था जिसकी शौहरत का चर्चा उस कस्बे की गली-गली में था। फ़़डकती हुर्इ बाजुएें, मज़बूत चौडा सीना, एक-एक बाल में सौ-सौ से ज़्यादा बल, आंखों में दो चमकते हुए हीरे, होठों पे सदाबहार मुस्कान लिये वो हरदिल अजीज़, हर आंख का नूर ंऔर हर एक की पसंद था। हर नौजवान हुस्न की वो चाहत और हरदिल का अरमान था।

मगर...... वो इन बातों से अनजान था कि वो क्या है? क्या सोचते हेैं लोग उसके बारे में? वो सबसे एक ही अन्दाज़ में खुशदिली से मिलता और मुस्करा कर जवाब देता। वो मुस्कान जिस पर करोडों दीनार खर्चे जा सकें वो यूं ही लुटा दिया करता। एक मासूम बच्चे जैसा दिल था उसका। उसे अहसास तक नहीं था कि क्या कीमत है उसकी मुस्कान की।

उसकी भाभी भी उससे अपने बेटे की तरह इतनी मुहब्बत करती थी कि अपने शौहर से पहले उसकी हर ज़रूरत पूरी करती और उसे सुलाने के बाद ही अपने शौहर की खि़दमत में जाती थी। इस तरह वो अपने शौहर के फ़जऱ् में अपना हक़ अदा करती थी। जिसके जिग़र का वो टुकड़ा था... वो मां ये चाहती थी कि वा कभी उसकी नज़र से अलग ही ना हो।

एक इन्सान को फ़रिश्तों की तरह जीते देखकर क़ुदरत को भी रश्क आया और एक ऐसा तूफ़ान उसकी जि़न्दगी में पैदा किया कि फ़रिश्ते भी जिसकी रफ़तार को देख ना सके।
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उस सूबे का नवाब दरिया के उस पार रहता था। उसके एक ही बेटी होने की वजह से वो शहज़ादी की तरह पली और आज़ाद थी। हर क़दर का आराम होने से उसके हुस्न पर जो निखार आया था उसका कोर्इ मुक़ाबला ना था। वो अगर चाँद था तो ये चाँदनी थी। वो अगर सूरज था तो ये सुबह की रोशनी थी। उसके रूप ने भी लोगों को दीवाना बना रखा था। शमअ़ की तरह उसके भी सैंकडों परवाने थे। ग़रूर उसे छू भी न सका था। नाज़ों से पली होने के बावज़ूद तमीज़ और तहज़ीब, शर्म और ग़ैरत, अदा और हया उसमें भरपूर थी।

बदन पर सुर्ख जोडा, चेहरे पर सुर्ख नकाब, और हाथों में सुर्ख गुलाब लिये वो लाल परी अपने बदन में सारे चमन की ख़ुश्बू समेटे हर शांम अपनी हवेली की महराब पर खडी होकर शांम की लाली को हराया करती थी।

उसकी अम्मी के मर जाने के बाद नवाब ने उसे बडे लाड-मुहब्बत से पाला था। दर्जनों तीमारदार हसीनाओं के अलावा उसकी एक ख़ास कनीज़ हमेंशा उसके साथ रहती थी। बचपन से साथ रहने से वो कनीज़ कम और सहेली ज़्यादा और दोनों में बहनों जैसी मुहब्बत थी। नवाब भी उसे अपनी बेटी की ही तरह समझता था। वो कनीज़ भी बला की खू़बसूरत थी। दोनों के हुस्न में सिफऱ् इतना फ़र्क था कि अगर नवाबजादी शबनम से नहाया हुआ सुबह का फूल थी तो उसकी शबनम कुछ जिम्मेदारियों की धूप पडने से खु़श्क हो गयी थी।
शहनार्इयों की गूंज के साथ दरिया की लहरें भी गाती हुर्इ अपने साजन सागर से मिलने नाचती हुर्इ दौड़ रही थी। उस रंगीन शांम में दरिया के इस पार रंगीनियां बिखरी पड़ी थी। सारे गली कूचे सजावट और चहल-पहल से आबाद थे।

हां..... उस नवाब के लड़के की शादी इस पार तय हुर्इ थी और आज वो दिन था जब वो बारात लेकर इस पार आ रहा था। बारात की अगुवार्इ करने आये हुए लोगों में वो भी एक था।
धीरे-धीरे दरिया के सीने पर बहुत दूर से कर्इ रंगों में लहराते हुए बादलों के टुकड़े फिसल कर क़रीब आते नज़र आये। जो धीरे-धीरे पास आकर बडे होते गये और हंस की तरह तैरते हुए ये बजड़े जब दरिया के सीने को चीरते हुए पास आ गये तो उनकी शांन देखने लायक थी। हर बजड़े पर 5-7 आदमी थे, मय, मीना और मौसिकी का हसीन संगम एक जादुर्इ दुनियां का अहसास करवा रहा था। कोठों की कैद में रहने वाली हसीन तितलियां आज उस आज़ाद आसमान की नीचे पानी की चादर, सारंगी की रें-रें और तबलों की धक-धक पर थिरक रहीं थी। किसी बजड़े पर मुजरा, किसी पर ठुमरी, किसी पर दादरा तो किसी पर ग़ज़ल गायी जा रही थी।

ज़नाना बजड़ों की रंगत देखने लायक थी। लगता था बाग़ के सुन्दर-सुन्दर फूलों को चुनकर उनमें भर दिया हो। एक लाल रंग का बजड़ा था जिसमें सिर्फ़ दो ही गुलाब थे और हवा के सिवाय कोर्इ और उस बजड़े में नहीं जा सकता था। उन दोनों के अलावा एक ओर चीज वहां थी जो उनकी तन्हार्इ को दूर कर रही थी। वो था एक दिलरूबा। उसके तारों को सहला रही नवाबजादी की उंगलियों से जैसे दिलरूबा की कांपती सांसों को जि़न्दगी मिल रही थी।

नवाबजादा जिस बजड़े में था, उसे दुल्हन की तरह सजाया गया था। उसका बयान करना उसकी तारीफ़ की तौहीन होगी और कोर्इ भी क़लम ये गुनाह उठाने से इन्कार कर देगी।

बारात की अगवानी के बाद दस्तूर के मुताबिक बारात अपने मुकाम को रवाना हो गयी। शादी की हर रस्म खूबसूरत से खूबसूरत अन्दाज़ में पूरी हुयी। दो दिन बाद बारात लौटने वाली थी कि उन दोनों की जि़न्दगी में आने वाले तूफ़ान ने अपनी अलसार्इ आंखों को खोलकर अंगडार्इ ली।
क्रमशः
लेखक - हुकम सिंह जी 
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