वो हमारा असर था



          आमने-सामने बैठे हम वक़्त के पन्ने पलट रहे थे, कितने लम्हे गुज़रे हमारे बीच से, कभी आंखें नम हुई तो कभी शब्द अटक गए मगर कितना कुछ था जो कह कर भी अधूरा था और अनकहा भी सुन लिया गया .. तुम्हें बोलते हुए देख रही थी और जाने कितने ही शब्द इधर-उधर फिसल रहे थे क्योंकि कानों से ज्यादा प्यास आंखों में थी जो तुम्हारे अक्स को पी लेना चाहती थीं।

           वो जब तुमने मेनू कार्ड की आड़ में धीरे से मेरी उंगलियों के बीच अपनी उंगलियाँ फॅसा कर हौले से हथेली पर दवाब बनाया तो लगा शायद ये लम्हे पहले भी जीये हैं हमने... तुम्हारी नम हथेली को अपनी हथेली में बांधे पूछा था मैंने, "ऐसा हमेशा होता है या मेरा असर है ?" 
"तुम्हारा ही असर है बेशक़ !" मुस्कुराती आंखों से तुमने कहा था 

           पहला कौर तुम्हें खिलाना, उंगलियों की पोरों का तुम्हारे लबों से स्पर्श होना, न जाने कितने अहसास जिला दिए थे उस मासूम स्पर्श ने .... फिर तुम अपने हाथों से खिलाते रहे और मैं हर ग्रास के साथ भूलती गयी हर उस चीज़ का स्वाद जो उस दिन से पहले खायी थी। "वो तुम्हारा असर था बेशक़ !"
सुनो, ये सिर्फ उस दिन की बात नहीं थी न, हमेशा से यही तो करते आये हैं न हम । 

           रुख़्सती से ऐन पहले वो क्षण भर की नज़दीकी तुम्हारी बाहों में मन के कितने तार छेड़ गयी थी ...
एक अरसे से बिछड़े दो पंछी वक़्त की गिरफ्त से दूर फिर मिले थे और अपने होने का एहसास एक दूसरे को दिला रहे थे....

#सुन_रहे_हो_न_तुम

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