अलविदा कहना था मगर ...

 30 जून की वो रात, हर ओर घनघोर अंधेरा, भीतर भी बाहर भी और क़लम लगातार चहलक़दमी कर रही थी, सामने कोरे पन्ने थे पर लफ़्ज़ नदारद । फिर अचानक एक धुंधला सा चेहरा उभरता गया, महीन सी रूपरेखा और दो चमकती आंखें ... यकायक एक आवाज़ गूंजी मेरे सूने से कमरे में, जैसे आहिस्ता से दस्तक दी हो किसी बंद खिड़की पर ..
      सलीके से एक उदास सी रागिनी मेरे खाली मन में उतर कर पसरना चाहती थी और मैं चाह कर भी उसे रोक नहीं पायी। दशकों से बंद खिड़की को आहिस्ता से धकिया कर जो दाख़िल हुई उदासी तो मन को जाने कैसी प्यास से भरती चली गयी। उस आवाज़ में अद्भुत कशिश थी, शायद उसमें बहती उदासी और गहरे तक घुली इश्क़ की चाहत पर आश्चर्यजनक बात ये भी थी कि उसे भी मेरी आवाज़ में वही कशिश महसूस हुई । ये इश्क़ की चाहत कहीं न कहीं एक टूटे रिश्ते को ढोया करती है, तभी तो कुछ रेशे बेचैनी के जोंक से लिपट जाया करते हैं और आगे बढ़ना ज्यादा मुश्किल लगता है पर पीछे लौटना उतना ही आसान !
       ये उस लंबी रात का सुरूर था जो जाने कितने ही दिन, महीने डूब गए और हम भूल गये कि सुबह की पहली रोशनी में इस रात का मायाजाल खो देगा अपना तिलिस्म और हमें लौटना होगा अपनी-अपनी उदासी के साथ ... मगर ये जिस मोड़ पर बिछड़ना है हमें, यहाँ से पीछे लौटने का कोई रास्ता ही नहीं बस सामने एक तन्हा सड़क है , मीलों तक धूप से तपती हुई क्योंकि ये दिन उस रात से कहीं ज्यादा लंबा होगा जिसमें हमारी उदासियाँ एक दूसरे का हाथ थामे सुकून की सांसें ले रही थीं , कुछ सांसें उधार की !
बस एक ही बात का मलाल रहा हम बिछड़े भी तो उस दिन जिसे इश्क़ के लिए मुक़र्रर किया है कुछ दीवानों ने ..

#सुन_रहे_हो_न_तुम

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