सन्नाटा और शोर

अचकचा कर उठ बैठती हूँ अक्सर और देखती हूँ अपने बिस्तर पर बेतरतीब पसरी हुई सलवटों को ... आधी रात की गहरी नींद में जैसे पुकारा हो किसी ने ...
पहचानी सी फिर भी अनजानी सी वो आवाज़ फिर रह-रह कर गूंजती ही रहती है सहर होने तक ....
यूँ तो इस बड़े से घर के बड़े-बड़े कमरों में सन्नाटे का ही शोर पसरा रहता है, और गाहे-बगाहे दस्तक देता है मेरे मन पर .. हाँ तुमने ठीक सुना सन्नाटे का अपना शोर हुआ करता है जो धीरे-धीरे चुपके से भीतर आना चाहता है और जब भीतर क़ैद हो जाये तो छटपटाता है बाहर निकलने को...
इस बड़े से घर में अक्सर भटक जाती हूँ तो खुद को खोजने तुम तक लौटती हूँ , एक तुम ही तो हो जो समझ सकते हो मेरा गुम हो जाना ! बड़े कमरों की बड़ी-बड़ी खिड़कियां, उन पर झूलते पारदर्शी पर्दे दुनिया की नज़रों से बहुत कुछ छुपाते हैं पर रात की मद्धिम रोशनी में उभरी आकृतियों की तरह कुछ ज़ाहिर भी कर जाते हैं ... ठीक उसी तरह इस घर की चुप्पी में बहुत सी अनकही बातों का शोर है, उन शिकायतों की अर्ज़ियाँ, जो कभी दर्ज़ नहीं हुई,अक्सर इसकी सीली हवा में फड़फड़ाकर अपने अधूरे सफ़र की याद दिलाती हैं।
मन अक्सर लौट जाना चाहता है उन बचपन की गलियों में जहाँ गिरते-पड़ते दो पहियों पर सवार सारी दुनिया की सैर पर निकलने का हौसला रखे था, वो छोटे से कमरे की बिना पर्दे वाली छोटी सी खिड़की जहां चाँद कभी नहीं आया पर हमेशा करीब लगा बिल्कुल हाथ बढ़ाकर छूने जैसा..अनगिनत आवाज़ों के गुंजन में भी कितनी आसानी से वो छोटी सी चिड़िया आकर अपनी उपस्थिति प्रतिदिन दर्ज़ करा जाती थी, बेनागा अपने हिस्से के छोटे ग्रास खाने आती और दुआएं देती लौट जाती सामने वाले बरगद के नीड पर ..
वो बरगद अब भी वहीं है पर अब उसके नीचे वो कच्चा सा बाड़ा नहीं है जहाँ अलसुबह दूध दुहने के लिए पुचकारने की आवाज़ से नींद खुला करती थी, टीन के छप्पर पर बरसाती बूंदों का संगीत कितनी बढ़ा देता था तन्मयता कि बाकी सब स्वर खुद ही मद्धिम पड़ जाते थे और मैं किताबों की दुनिया में खोई उन बूंदों में भीगती रहती ..
सुनो तुम मेरी इन बचकानी सी बातों में उलझना मत.. ये बस तन्हाई का शोर है और उस शोर में अपनी ख़ामोशी को महसूस करती मैं !

#सुन_रहे_हो_न_तुम

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