अंजुरी

कोशिश तो बहुत की, थामे रहूँ
मगर कुछ लम्हे छिटक जाना तो लाज़मी था
आख़िर अपनी दो हथेलियों में कैसे संभाल पाती
वे सागर भर अहसास और उनमें भीगे वे अनमोल लम्हे .…
याद है बारिश की बूंदों को मेरी हथेली से रिसते देख
तुमने अपनी अंजुरी मेरी हथेली के नीचे लगा दी थी ...
काश यूँ ही हर लम्हा छिटक कर तुम्हारी अंजुरी में महफ़ूज़ हो जाता
तो वक़्त की धूप में पिघलने से बच जाते
हमारे वे अनमोल लम्हे ...

❤️ किरण

Comments

Popular posts from this blog

लाल जोड़ा (कहानी)

एक मुलाक़ात रंगों से

कहानी (मुक्तक)