मनाली डायरीज़


यात्रा संस्मरण : मनाली डायरीज़

       कहते हैं अगर किसी चीज को दिल से चाहो तो पूरी कायनात तुम्हे उससे मिलाने में जुट जाती है.........सचमुच जब ठान लो तो सब संभव है और राहें स्वयं स्वागत करती हैं । लगभग 15 वर्ष पहले जब मनाली गयी थी परिवार के साथ तो मोहब्बत हो गयी थी मनाली की खूबसूरत हरी-भरी वादियों और बर्फ़ से ढके ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से... वहाँ के बाशिंदों की सादगी और अनगिनत मीठी-मीठी यादों से लबरेज़ मन हमेशा से एक आरज़ू पाले रहा कि किसी दिन फिर लौटूं उन हसीन कुदरती नजारों के बीच |

            गत वर्ष अर्थात 18 मई को स्कूल के समय की सखी सारिका का व्हात्सप्प पर मैसेज आया, मनाली का प्रोग्राम बना 10 जून से पहले, सुनते ही जैसे रोमांच सा छा गया और मन बेताब हो उठा | आनन-फानन में दो ही दिन में यात्रा की योजना बनी, रेल टिकट, वो भी गर्मी की छुट्टियों में ! ऐसे में जयपुर से चंडीगढ़ के 23 मई के जाने और 31 मई के वापसी के कन्फर्म टिकट मिलना जैसे सचमुच कुदरत का ही आशीर्वाद था । मनाली की 15 वर्ष पहले की खूबसूरत यादों में भीगा मन लिए हम चल पड़े थे जयपुर से पर ये मालूम नहीं था आगे का सफर कैसा होगा बिना किसी पूर्व तैयारी के ?

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चंडीगढ़ :

        24 मई की अलसुबह ग्रीन-क्लीन सिटी चंडीगढ़ में बेहद ख़ुशनुमा थी  पर मन में तो मनाली अतिशीघ्र पहुँचने की उत्सुकता चरम पर थी। ट्रेवल एजेंसी की रात की बसों में ही टिकट उपलब्ध थे, ऐसे में पूरे दिन चंडीगढ़ में बिताना (यानि मनाली में एक दिन कम और साथ ही रात में चंडीगढ़ से मनाली मार्ग के खूबसूरत दृश्यों को न देख पाने का मलाल ) कुछ खास अच्छा नहीं लग रहा था। तभी ख़्याल आया क्यों न एक आखिरी कोशिश करें सेक्टर 43चंडीगढ़ बस स्टैंड चल कर, शायद सुबह 8:30 वाली वॉल्वो या 12 बजे वाली में 2 टिकट मिल जाएं ।

        इस बीच पतिदेव ने अपने मित्र से कहकर चंडीगढ़ में होटल में कमरा भी बुक कर दिया दिन भर के लिए , पर हम एक आखिरी कोशिश करने की ठान चुके थे सो उबेर की टैक्सी पकड़ी और पहुँच गए चंडीगढ़ बस स्टैंड ! सुबह की दोनों वॉल्वो बसें फुल और दिन भर गर्मी में तपते हुए10 घंटे एक्सप्रेस बस के सफर से जी घबरा रहा था क्योंकि सखी को बस के सफर में परेशानी होती है,खासकर चढ़ाई वाले सफर में। पूछताछ पर एक बुज़ुर्ग ने मेरे निवेदन पर राय दी कि यदि 8:30 वाली बस 48 सीट वाली हुई तो शायद 2 टिकट का इंतज़ाम हो सके, ऐसे में8 बजे यानि बस लगने तक प्रतीक्षा करें वरना 12 बजे वाली में आखिरी पंक्ति की 2 सीट तो है । ठीक 8 बजे जब टिकट विंडो से मनाही हो गयी और थोड़ी निराशा भी, वही बुज़ुर्ग अवतरित हुए और कंडक्टर को कहा "इन मैडम को3-4 न. सीट दे दो 8:30 वाली वॉल्वो में" उन्हें ठीक से धन्यवाद भी नहीं कह पायी और वो मुस्कुरा कर जहाँ से अवतरित हुए थे, वहीं अंतर्ध्यान भी हो गए ...

           यूँ शुरू हुआ चंडीगढ़ से मनाली का खूबसूरत सफर ... सखी की थोड़ी स्वास्थ्य संबंधित परेशानी के बावजूद बाहर के खूबसूरत नजारों ने मन मोह लिया , हाँ तेज धूप ने बहुत सताया पर मनाली पहुँचने की उत्सुकता ने सब कुछ सहनीय कर दिया ।

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कुल्लू या भुन्तर :  

      चंडीगढ़ से बस का टिकट तो मनाली के लिए ही लिया पर मन था कि मनाली में रुकने के बजाय कुल्लू रुकना बेहतर होगा । इसके तीन कारण थे, पहला और मुख्य कारण था मनाली में मिलने वाली पर्यटकों की भीड़ ... दूसरा कारण था कुल्लू में अधिक पर्यटकों के न ठहरने के कारण होटलों के कमरे तुलनात्मक रूप में किफ़ायती होना.... तीसरा कारण जिसकी तरफ ज्यादातर पर्यटकों का ध्यान नहीं जाता, वो है लगभग सभी दर्शनीय स्थलों तक जाने का मार्ग कुल्लू होकर ही जाता है | मगर बात फिर वही थी कि हमारी नियति में तो कुछ और ही लिखा था ! हमारी बस पंजाब की सीमा पीछे छोड़ हिमाचल में प्रवेश कर रही थी कि एक सहयात्री पीछे से आगे चला आया और बस कंडक्टर से बतियाने लगा। कुछ ही देर में उनकी बातों में हम भी शामिल हो गए और तब मन ही मन अपने निर्णय पर संतुष्टि हुई कि मनाली केवल भ्रमण हेतु ही उचित रहेगा, ठहरना कुल्लू में बेहतर होगा । तभी कंडक्टर साहब बोल पड़े, "कुल्लू से भी बेहतर भुंतर में ठहरने की सोचिए क्योंकि कुल्लू से भी किफ़ायती है भुंतर और सभी रास्ते वहीं से कटते हैं तो टैक्सी भाड़ा भी कम लगेगा, समय की बचत भी होगी और सबसे प्रमुख बात भीड़-भाड़ से दूर स्थानीय लोगों के बीच रहने का अनुभव निश्चय ही यादगार रहेगा ।"

             भुंतर कुल्लू जिले का लगभग 4000 की आबादी वाला नगर है, वहीं पर कुल्लू एयरपोर्ट भी है तथा लगभग सभी दर्शनीय स्थलों तक जाने के लिए वहाँ से बस व टैक्सियाँ उपलब्ध हैं।

अब सवाल ये था कि भुंतर में कहाँ ? तो इंटरनेट पर ढूंढने पर बहुत कम होटल नज़र आये और जो थे भी तो वो बुक हो चुके थे । जो उपलब्ध थे उनकी दरें हमारी पॉकेट से कहीं ज्यादा, ऐसे में कंडक्टर साहब ने देवदूत बनकर हमें उबार लिया। उन्हीं के मित्र के परिचित का कॉटेज है भुंतर में जिसके पीछे से नदी बहती है । लोकेशन तो उनकी बातों में ही मन को भा गयी पर उपलब्धता, कॉटेज का किराया और सुविधाएं देखनी बाकी थी। उन्होंने अपने मित्र से बात की और आनन-फानन में कॉटेज के मालिक से हमारी फ़ोन पर बात भी हो गयी। एक छोटे नगर में उतरना शतरंज के ऐसे दांव की तरह था, जहाँ हो सकता था हमारी शह और मात भी हो सकती थी, अगर किसी कारण हमें कॉटेज पसंद नहीं आता या और कोई कमरा नहीं मिलता,ऊपर से सूर्य देवता विदा लेने की जल्दी में थे, तो थोड़ा मन आशंकित भी था । ईश्वर का नाम लेकर हम भुंतर के स्टॉप पर उतर गए और वहीं से कॉटेज का मालिक हमें कार में लेने आया। जाने क्यों वह 30-32 साल का युवा अपरिचित लगा ही नहीं , एक निश्छल सी मुस्कान लिए वह हमें कॉटेज दिखाता रहा पर मैं और मेरी सखी तो आंखों ही आंखों में सहमत हो चुके थे। सड़क से थोड़ा ऊपर की ओर स्थानीय घरों के बीचों-बीच बना एक दो-मंजिला कॉटेज, वो भी इतनी किफ़ायती दर पर मिलना ! हॉल जिसमें खुली रसोई, ड्राइंग-डाइनिंग, ऊपर एक लिविंग एरिया साथ ही दो बैडरूम, आगे एक बालकनी। कॉटेज के बाजू में एक और बड़ा कॉटेज और दोनों का साझा छोटा सा फूलों भरा बगीचा, सड़क के उस पार कुल्लू की पहाड़ियों का ख़ूबसूरत नज़ारा और कुल 200मीटर दूर बहती पार्वती नदी और पुल के आगे पार्वती और व्यास नदी का समागम स्थल ... 10 मिनट में वहाँ रुकने का निर्णय लेना इतना आसान लगा कि कोई संशय मन में आया ही नहीं ।

      कॉटेज मालिक राजवीर से इस तरह ट्यूनिंग हुई कि उन्होंने तुरंत भाँप लिया कि हम आम टूरिस्ट की तरह केवल मनाली-रोहतांग देखने नहीं आये। अरे हाँ, एक और जनाब से भी परिचय हुआ, टीटू उर्फ़ टीकमराम , 18वर्षीय कॉटेज का केयरटेकर जो दिन-रात कॉटेज की देखभाल और रखरखाव के लिए था। बेहद मासूम, प्यारा सा बच्चा जो अपनी पढ़ाई के साथ-साथ अनुभव के लिए राजवीर के साथ जुड़ा हुआ था।

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मणिकरण और कसोल :

               'मणिकरण' की अविस्मरणीय यादें पिछले 15वर्षों से दिल में सजीव थीं। कुल्लू से होकर मणिकरण जाने वाले रास्ते में घाटियों से गुज़रते हुए ऊँचे-ऊँचे आसमान छूते चीड़ के पेड़ और घने जंगल तब सहयात्री जो रहे थे! एक बार फिर उसी राह पर बढ़ चली थी हमारी टैक्सी कार ... बहुत कुछ बदला हुआ सा लगा ... पहले से कहीं ज्यादा घर पहाड़ियों की गोद में मुस्कुरा रहे थे ,  घने जंगल अब उतने घने नहीं दिखे, इंसानी जरूरतों को निरंतर पूरा करने की क़वायद में ही शायद जंगलों के माथे से बाल (वृक्ष) झड़ चुके थे और अब भी झड़ ही रहे हैं। सड़क किनारे अनगिनत होटल और गेस्ट हाऊस दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई पर्यटकों की माँग को पूरा करने के लिए बाहें पसारे आमंत्रण देते दिखाई दिए । इस सबके बावजूद कुदरत अपने साज-श्रृंगार से मन मोह रही थी, तेज धूप को अपने ऊपर झेलकर भी ठंडी छांव लुटाते वृक्ष कैसे न भाते मन को ? पार्वती घाटी का आँचल तर करती पार्वती नदी हमारी आंखों को भी सुकून दे रही थी। जाने कितने ही नज़ारे मन के कैमरे में कैद होते गए, उनमें से कुछ ही पकड़ पाया हमारा कैमरा ... मन जितनी संवेदनशीलता भला कैमरे में कहाँ !

       मणिकरण से कुछ ही दूर पहले रास्ते मे 'कसोल' गाँव का मार्केट बरबस ही आकर्षित करता है, केवल दुकानों या उनमें सजे सामान के लिए नहीं बल्कि वहाँ के स्थानीय बाशिंदों और उनकी पारंपरिक वेशभूषा के कारण भी | हमारे टैक्सी ड्राइवर विकास (कसोल का ही निवासी) ने बताया कसोल से आगे काफी ऊंचाई पर पहाड़ों में बसा है मलाना गाँव जहाँ ट्रेक करके पहुँचा जा सकता है, मगर एक निश्चित सीमारेखा तक ही, वहाँ की अपनी एक अलग ही वेशभूषा है और अलग ही भाषा( जिसका प्रयोग उस गाँव के निवासियों के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता ),कुछ हमें बाज़ार में दिखाई भी दिए पर कैमरा खामोश रहा इस डर से कि कहीं हम उन्हें नाराज़ न कर दें । उनके गाँव में उनके देवता के मंदिर में बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित है तथा वे हर बाहरी व्यक्ति के लिए अस्पृश्य हैं (कोई छू नहीं सकता उन्हें ) यहाँ तक कि कसोल में उनकी दुकानों पर भी पैसे काउंटर पर रखने होते हैं और सामान भी काउंटर से ही उठाना होता है। वैसे एक और बात भी है जिसे फुसफुसा कर बोलते हैं सभी ... सबसे उच्च कोटि की हशीश वहाँ उगती है और वही आकर्षण का केंद्र है वहाँ जाने वाले ट्रेकर्स के लिए । अब इतनी जानकारी काफी नहीं थी हमारे लिए पर ट्रेक करने के लिए हिम्मत कहाँ से लाते । वैसे और भी बहुत से ट्रेकिंग पॉइंट हैकसोल से जाने के लिए जैसे बरसैनी, तोष, खीरगंगा .. सबकी अपनी अलग विशेषताएं हैं पर सबसे सुंदर और लंबा ट्रेक खीरगंगा का है दो दिन का। रास्ते में कई झरने,झील इस कठिन ट्रेक के आकर्षण हैं ।

            मणिकरण यूँ तो गुरुद्वारा, प्राचीन श्रीराम मंदिर,कृष्ण मंदिर, शिव मंदिर और ताते (गर्म) झरने के लिए प्रसिद्ध है... मगर यह ट्रेकिंग पसंद करने वालों के लिए भी प्रमुख आकर्षण है... मलाना, बरसैनी, खीरगंगा और बहुत से ट्रैकिंग पॉइंट यहीं से आरंभ होते हैं ।

         हमारे टैक्सी ड्राइवर ने हमें गुरुद्वारा से थोड़ा आगे एक पुल के पास उतारा जो पार्वती नदी के उस पार जाता है, जहाँ से हमने श्रीराम मंदिर, शिव मंदिर , कृष्ण मंदिर और एक दो और भी छोटे मंदिर देखे। श्रद्धालुओं की भीड़ यहाँ भी उसी तरह मिली जैसे भारत के लगभग सभी मंदिरों में और जब बाज़ार की रंगबिरंगी दुकानों से होते हुए गुरुद्वारा साहिब पहुँचे तो वहाँ भी पाँव रखने की जगह नहीं , इसके बावजूद व्यवस्था बहुत ही सुनियोजित और सुव्यवस्थित ।

      सड़क के इस पार से गुरुद्वारे को भी जोड़ता एक और पुल है, पुल के नीचे वेग से बहती पार्वती नदी, जिसके एक तरफ फूटता गर्म पानी का स्रोत और दूसरी तरफ बहकर जाता वही पानी बर्फ सा शीतल हो जाना, इसे कुदरत का करिश्मा मान, यह स्थान बहुत से लोगों की आस्था का केंद्र बन गया। विज्ञान की खोज इसे सल्फर की मौजूदगी का प्रभाव बताती है । इसी ताते पानी के स्रोत से सटकर बल्कि शायद ठीक ऊपर ही बना है पवित्र गुरुद्वारा, जहाँ नीचे तल पर है गर्म पानी का कुंड जिसमें अब भी श्रद्धालु पोटली में चावल बांध कर पकाते हैं। इसी ताते पानी में श्रद्धालु स्नान करते हैं क्योंकि ये मान्यता है कि इस पानी में निरोग करने की शक्ति है।पानी के स्रोत के ऊपर गर्म गुफा और मंदिर, जहाँ चट्टानों से अपने शरीर को तापते श्रद्धालु (शरीर के जिस हिस्से में पीड़ा हो, उसे गर्म चट्टानों से छुआने पर दर्द गायब हो जाता है, ऐसी मान्यता है) । श्रद्धा कम कोतुहलवश हम भी गए गुफा के भीतर, मैं एक मिनट में ही बाहर आ गयी पर मेरी सहयात्री और सखी काफी देर शायद पूरे 5 मिनट तक भीतर रही और पसीना-पसीना होकर लाल मुँह लिए बाहर आई । गुफा के दायी ओर मंदिर, जिसके भीतर जाने की तो सोचना भी मुश्किल था क्योंकि दरवाज़े तक पहुँचने में ही पाँव जलने लगे मानो दहकते अंगारों पर चल रहे हों। मुझे लगता है मुझमें श्रद्धा का अभाव था शायद इसीलिए मुझसे वह ताप सहन नहीं हुआ ... खैर आस्था पर कोई सवाल न करते हुए यहीकहूँगी कि जब पूरे आत्मबल से कोई अभिलाषा की जाएतो वह अधिकतर सकारात्मक परिणाम देता है ।

     गुरुद्वारे में मेरा ये पहला प्रवेश था, सो सखी ने कहा दुपट्टा तो है ही नहीं तेरे पास, वहाँ बाहर रखे सफेद रुमाल से सिर ढक लो। अंदर कीर्तन चल रहा था तो मन रम गया,कुछ देर बैठ गए चुपचाप, कमाल की बात ये थी कि जितनी भीड़ बाहर थी उतनी ही शांति और छीड भीतर। कुल जमा 20 लोग थे जो वाकई श्रद्धावनत वहाँ बैठे सत्संग में डूबे थे, बाकियों का आना-जाना जारी था।

   इसके बाद बारी थी लंगर की, वो भी पहला ही अनुभव था मेरा ... तो एक सेवादार ने तुरंत टोक दिया सिर पर रुमाल लेने के लिए यहाँ भी ! श्रीराम मंदिर के महंत जी ने भी वहाँ प्रसादी लेने का आग्रह किया था पर हमने गुरुद्वारे का लंगर चुना। छोटे बच्चों से बड़ों तक को सेवा में लगे देख अद्भुत अनुभव हुआ, सुव्यवस्थित और साफ-सफाई से इतने श्रद्धालुओं के भोजन की व्यवस्था आसान तो नहीं होती ।

               कभी गौर किया है आपने, अक्सर मौसम बदले तो मन का मौसम भी बदल जाता है । तेज धूप में पानी का बहता दरिया भी उतना सुकून नहीं देता जितनी सुहाने मौसम में बरसी कुछ बूंदे ! मणिकरण के गुरुद्वारा साहिब से बाहर आते ही काली बदरिया ने स्वागत किया और गड़गड़ाहट भी मधुर संगीत सी लगी, फिर शुरू हुई रिमझिम ने तो मानो अमृत बरसा दिया । ठंडी हवा और ख़ुशनुमा मौसम ने मजबूर कर दिया कदमों को पुल पार मंदिर के आंगन में कुछ क्षण रुककर एक आख़िरी बार गुरुद्वारा साहिब और सहचरी पार्वती नदी को नज़र भर देखने के लिए। यादगार के रूप में सेल्फी तो बनती ही थी !

       इतने सुहाने मौसम में कुदरत का साथ पर्याप्त लगा इसीलिए कसोल के बाज़ार में रुकने के बजाय वापसी में टैक्सी आगे बढ़ती रही।

"मैडम जी अगर थोड़ा सा पैदल चलें तो नदी के उस पार छोटा सा गाँव है और वहीं नीचे नदी के पास भी जा पाएंगे। वो संकरा लकड़ी का पुल देख रहे हैं, उसी से जाना होगा उस पार", टैक्सी ड्राइवर विकास ने कहा तो हम तुरंत तैयार हो गए।

सड़क से नीचे उतरते एक संकरे से कच्चे रास्ते पर चलते-चलते लकड़ी के पुल पर कदम रखा तो अपने आसपास बिखरी कुदरत की ख़ूबसूरती में जैसे खो से गए। दोनों तरफ ऊँचे-ऊँचे आकाश छूते चीड़ के पेड़ और पुल के नीचे से बहती धारा । पुल के उस पार घने जंगल से होते हुए गाँव का रास्ता, चट्टानों के नीचे बहुत करीब से बहती शीतल धारा और बस डाल दिया डेरा हमने कुछ देर के लिए वहीं ... बेहद करीब से देखकर भी नदी तक पहुँचने का हौसला नहीं हुआ .. एक तो वेग बहुत तेज और साथ ही चट्टानों से उतरना-चढ़ना बिना किसी संसाधन के दुष्कर लगा । दूर से ही अपनी और कैमरा की आंखों को तृप्त कर हम लौट चले अपनी टैक्सी के पास, पर एक स्नेहिल आलिंगन तो बनता ही था सबसे ऊँचे वृक्ष का, मानो किसी बुज़ुर्ग का स्नेह और आशीष मिला |

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नेचर पार्क :

       भुंतर लौट आये थे शाम 5 बजे तक और विकास ने ज़िक्र किया नेचर पार्क का तो राजवीर से बात कर कॉटेज पर रुके बिना ही 2.5 km आगे नेचर पार्क के गेट पर ही ब्रेक लगे टैक्सी के । बंद होने का समय 7:30 था तो झट से एंट्री टिकट लेकर घुस गए। पहली नज़र में बच्चों के खेलने का बगीचा ही लगा पर घूमते-घूमते आख़िरी छोर पर पहुँचे तो दिल खुशी से उछल पड़ा ... बस एक रस्सी के पार हमें अपने करीब आने का आमंत्रण दे रही थी मंद-मंद मुस्कान बिखेरती पार्वती नदी (यहाँ प्रवाह कुछ धीमा रहता है) मानो थिरक रही हो हौले-हौले प्रकृति के मधुर संगीत की धुन पर । उस मीठी मनुहार को भला कैसे नकारते, तो पहुँच गए हम रस्सी के नीचे से और जा बैठे पार्वती की गोद में ...... मंद-मंद बहती हवा और स्नेहिल स्पर्श लहरोंका, वक़्त भी जैसे सुकूँ के पल बिता रहा था हमारे साथ ....

      इस बीच युवाओं का समूह अपने एक साथी के टूटे दिल को जोड़ने की भरसक कोशिश में लगा था, संसाधन क्या थे, शायद कहने की आवश्यकता नहीं ... जिसकी चाहत में दिल्ली से मनाली तक का सफर किया, उसे उसी के दोस्त का साथ भा गया, ऐसी जानकारी एक बड़बोले साथी ने दी हमें बातों-बातों में !

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पाराशर :

             कुछ दृश्य और मन पर उनका प्रभाव केवल और केवल महसूस किया जा सकता है, न केवल शब्दों की पहुँच से परे होता है बल्कि अच्छे से अच्छा कैमरा भी उसे समाहित नहीं कर पाता ... कुछ ऐसा ही अनुभव था'पाराशर' का ! अब भी वो चल दृश्य मन पर अंकित है ... भुंतर से 50 कि.मी. का सफर तय करके मनाली के विपरीत दिशा में सबसे ऊंची चोटियों में से एक पर खड़े हम, दूर सामने पसरे मनाली के हरे-भरे पहाड़ और उनके पीछे से झांकती बर्फीली चोटियाँ, और बीच में गहरी घाटियाँ हरे-भरे चीड़ के वृक्षों से लदी और चमकीली हरी घास का फर्श सा बिछा हुआ... पाराशर में कदम रखते ही बादलों ने स्वागत किया अपनी गर्जना से मानो कह रहे हों "स्वागतम सुस्वागतम" साथ ही ऊपर आकाशीय कैमरा बार-बार फ्लैश चमका रहा था जैसे वो भी कैद कर लेना चाहता हो वो लम्हा जब हम एकाकार हो रहे थे कुदरत से ! तपती हुई धूप में आरंभ हुआ सफर यूँ मुक़म्मल होगा,सोच से भी परे था।

      50 कि.मी. पहाड़ी सड़क पर सफर , ऊंचाई की ओर,अद्भुत था वो अनुभव जब कभी-कभी नीचे की गहराई की ओर देखना भी अजीब सी सिहरन दे रहा था पर मन रोमांचित भी था । जहाँ टैक्सी रुकी वहाँ का दृश्य यक़ीनन मनमोहक था पर जब डेढ़ फुट चौड़ी पगडंडी पर लगभग500 मीटर चल कर चोटी पर पहुँचे तो एक बारगी साँस थम सी गयी सामने का नज़ारा देखकर ! चारों ओर हरित चादर सी बिछी थी, 100 मीटर नीचे की ओर ढलान पर चले तो पाराशर झील नज़र आई, स्वच्छ निर्मल जल और एक कोने में तैरता घास का टापू, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह अपनी जगह बदलता रहता है । झील के पानी को स्पर्श की इजाज़त नहीं है, चारों तरफ बाड़बंदी से सुरक्षित रखा गया है। आगे चलते हुए चढ़ाई पर जाकर हम चोटी के एक छोर पर जा बैठे जहाँ से उस पार के हिम शिखरों का अद्भुत नज़ारा था और नीचे की गहरी घाटी का भी। अभी हम साथ लाये आलू के परांठे खाने ही लगे थे कि रिमझिम अमृत की बूंदे बरसने लगीं। मन तो बहुत था भीगने का पर साथ कोई ड्रेस न होने से मन को मनाना पड़ा और जल्दी से मंदिर के साथ बने शेड में आकर बैठ गए। इस बीच तेजी से तापमान गिरने लगा था और पहली बार लगा हम हिल स्टेशन पर हैं । घास पर पड़ रही बूँदे कुछ और निखार रही थीं कुदरती खूबसूरती को और मन शीतल हवा के साथ बहने लगा था ।

     सचमुच अलौकिक अनुभव था जिसकी अनुभूति आज भी साथ है पर शायद पूर्ण वर्णन शब्दों में कभी नहीं कर पाऊँगी .... कुछ-कुछ समझ आ रहा था क्यों ऋषिपाराशर ने ये स्थान चुना होगा तपस्या के लिए ? जब कुछ क्षण में हम सम्मोहित हो गए और प्रकृति में घुलमिल गए तो एक तपस्वी के लिए तो निश्चित ही प्रभाव कई गुना रहा होगा ।

    ऋषि पाराशर आश्रम में बने कमरे यात्रियों के लिए उपलब्ध हैं पर रात्रि में तापमान काफी कम रहने से शायद ही यात्री वहाँ रुकते होंगे और खाने का भी कोई विशेष इंतज़ाम नहीं दिखा, अलबत्ता नीचे गाँव के कुछ लोग वहाँ चाय, बिस्कुट, मैगी, मठरी आदि उपलब्ध करा देते हैं। मंदिर में रखी कोई भी मूर्ति से ज्यादा मुझे हमेशा वहाँ का स्वच्छ वातावरण ही आकर्षित करता है और उसी का असर होता है कि मन स्वतः शांत हो जाता है ।

रिमझिम से ख़ुशनुमा हुए मौसम ने ऐसा बांधा कि जाने कब 3 बज गए और पाराशर को अलविदा कहने का समय करीब आ गया। कदम लौट रहे थे पर मन वहीं कहीं बस जाना चाहता था ...

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पार्वती-व्यास संगम :

                पानी पानी रे

पानी पानी इन पहाड़ों की ढलानों से उतर जाना

धुआं धुआं कुछ वादियाँ भी आएँगी गुज़र जाना

इक गाँव आएगा मेरा घर आएगा

जा मेरे घर जा

नींदें खाली कर जा..

 

पानी की तासीर ही कुछ ऐसी है कि मन भिगो देता है, चाहे आसमाँ से बरसे, चाहे समुद्र में उठती लहरों के संग आये,चाहे पहाड़ों से पिघलती बर्फ झरनों के रूप में आये या फिर कलकल बहती नदिया ! साँझ ढल रही थी, जाने कितने ही रंग गलबहियां कर रहे थे आकाश में जैसे विदा ले रहे हो निशा के काजल में घुल जाने से पहले ....'पाराशर लेक' से लौट आये थे मगर अब भी मन वहीं कहीं भटक रहा था बावरा सा ... लौटते हुए गाँव के छोटे से बाज़ार में काका की दुकान से मिठाई ली (दो दिन से कुछ मीठा खाने की हुडक उठ रही थी), सादी सी दिखने वाली मिठाई में गजब का स्वाद था, बाद में अफसोस हुआ कि थोड़ी ज्यादा क्यों नहीं ली। रिमझिम फिर शुरू हो चुकी थी तो इस बीच काका और बाकी लोगों से बतियाने का मौका मिल गया और एक बच्चे को टायर लुढ़काते देख अपने बचपन वाले घर की गलियां याद आ गयीं। हाय ! वो बचपन के खेल , वो दिन सुहाने!

     टैक्सी ड्राइवर ने एक छोटी सी पगडंडी के बारे में बताया लौटते समय जो हमारे कॉटेज से कुछ ही दूरी पर कुछ घरों के बीच से जाती थी सीधे नदी के किनारे । रास्ता कच्चा था और हम बस अंदाज से चल रहे थे तभी कलकल की ध्वनि सुनाई दी और तसल्ली हुई कि हम सही राह पर हैं। बस एक मोड़ और अद्भुत था वो नजारा ... पगडंडी ढलान पर बढ़ रही थी और हम दौड़ते हुए पहुँच गए पानी के पास। कोई शोर नहीं बस नीड पर लौटते पंछियों की चहचहाहट, बहते पानी की कलकल और ठंडी हवा की सरसराहट ! देर तक वहाँ बैठे मैं और सखी बतियाते रहे, उस पल ऐसा लग रहा था जैसे पानी भी हमारा हमराज था, हमसे बतिया रहा था । हमारी बातें भी कब रुकी और मन ख़ामोश सा नदिया के संग बहने लगा,कि पता ही नहीं लगा कब शाम ढली और झिंगुरों ने तेजी से गहराती रात के आने की मुनादी कर दी। एक खूबसूरत दिन , कुछ खूबसूरत एहसास, बहुत सी खूबसूरत यादें ... और सुकून भरी नींद एक गिलास गर्म दूध के साथ........

अगले दिन फिर से एक नए सफर पर जो निकलना था !

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बंजार, जिब्ही, जालोरी पास :

                       कभी-कभी मंज़िल से कहीं अधिक ख़ूबसूरत रास्ता होता है, कुछ ऐसा ही है बंजार की खूबसूरत हरी-भरी वादियों में बसे छोटे से गांव जिब्ही तक पहुँचने का रास्ता ! चंडीगढ़-मनाली हाईवे पर एक लंबी सुरंग पार करते ही औत, एक छोटा सा शहर और वहाँ से लगभग 35 कि.मी. का ख़ूबसूरत सफर है जिब्ही का।

चीड़ के पेड़ों के अलावा सेब, अनार, अखरोट, लाल बेर से लदे पेड़ सड़क के किनारे से लगभग पूरे रास्ते आँखों को ठंडक देने के साथ ललचाते भी है (मगर अफसोस हम फल पकने से कुछ पहले पहुँच गए )। चिलचिलाती धूप होने के बावजूद पूरे सफर में एक पल को भी नज़र नहीं हटी कुदरत के खूबसूरत नज़ारों से ।

शृंगा ऋषि के मंदिर पहुँच कर लगा, छोटा सा मंदिर ही तो है, परन्तु जब एक सीढ़ी चढ़कर ऊपर पहुँचे तो शीतल बयार ने एक बारगी पूरे रास्ते की तपन भुला दी। पहाड़ी झरने का कुदरती बर्फीला पानी, जो टीटू ने रास्ते से भरा था, पीकर जो तृप्ति मिली, वह स्वाद और ठंडक किसी 20 ₹ वाली मिनरल वॉटर की बोतल में कहाँ ! अरे हाँ ये तो बताना ही भूल गयी इस सफर में टीटू (कॉटेज का केयरटेकर) हमारा गाइड था, क्योंकि ये उसका पैतृक गाँव है और वह जालोरी पास (जो हमारा अगला पड़ाव था) के आसपास के सभी रास्तों से भली-भांति परिचित था।

मंदिर के बरामदे में ठंडी हवा का आनंद , ऐसे जैसे बीसियों कूलर लगाए हों कुदरत ने, और सामने थी ख़ूबसूरत वादियां बंजार घाटी की । कैमरा क्लिक करता रहा पर पागल मन था कि भर ही नहीं रहा था, मानो सारी खूबसूरती को कैद कर लेना चाहता हो । अब बारी आई मंदिर में दर्शन की, तो दहलीज़ पर ही कदम ठिठक गए,दरवाज़े पर मधुमक्खियों का पहरा जो था ! टीटू ने पुजारी(जो उसका दोस्त भी था) को आवाज़ लगाई तो उसने आकर समझाया, "ये मधुमक्खियां हमेशा रहती हैं पर किसी को काटती नहीं, आप बिना डरे चले आइये मेरे पीछे ..."

हिम्मत करके हम चल दिये उनके पीछे और सचमुच मधुमक्खियों ने सप्रेम रास्ता दे दिया हमें। कुछ लकड़ी की ऊँची सीढ़ियां चढ़कर मंदिर का कक्ष दिखा, स्वच्छ और ठंडा .. कुछ देर वहाँ बैठना सुकून से भर गया मन को, पर जिब्ही तो एक पड़ाव भर था हमारे लंबे  सफर का, आगे पैदल ट्रेक करना था हमें लगभग 3 घंटे चैनी गाँव के लिए जो प्रसिद्ध है चीनी शिल्प के लिए , खासकर चैनी फोर्ट ...मगर अफसोस तेज़ धूप ने हौसले पस्त कर दिए और हमने चैनी को भी खीरगंगा की तरह अपनी विश लिस्ट में डाल लिया, अगली ट्रिप के लिए (जो पक्का सर्दी के मौसम में होगा)

  " टीटू हमें छोटे-छोटे ट्रेक पर ले चल, कुछ ऐसे 'जहाँ कोई आता-जाता नहीं' " (पर्यटकों की भीड़-भाड़ न हो और हम प्रकृति के साथ कुछ ख़ूबसूरत लम्हे संजो सकें)

टीटू का मीठा सा सदाबहार जवाब था "हाँ जी" हम तो उस प्यारे बच्चे के इन दो शब्दों के कहने के अंदाज़ पर ही फिदा थे !

कुदरत के छुपे ख़जाने :

                   बचपन में एक खेल खेला करते थे अक्सर,नाम था ट्रेज़र हंट यानी खजाने की खोज ... कुछ ऐसा ही महसूस हुआ जब हम मनाली के पहाड़ों में छुपे कुदरत के अकूत खजाने को खोजते हुए आगे बढ़ रहे थे चाहे वो हरियाली चट्टानों के पीछे छुपे झरने हों या ऊँचे वृक्षों से लदे घने जंगल के बीच से कहीं कलकल बहती जलधारा हो। ऊँची-ऊँची पहाड़ी की चोटियों पर या छुपी हुई कंदराओं में यूँ ही ऋषि-मुनियों ने अपने ठिकाने नहीं बनाए होंगे, स्वयं से जुड़ने के लिए प्रकृति से जुड़ना और प्रकृति से जुड़ने के लिए गहराई और ऊंचाई तक जाना, शायद यहीं वो रास्ता है, जो उस स्थिति तक पहुंचा सकता है, जहाँ हम 'स्वयं' से जुड़ाव महसूस करते हैं ।

     आम पर्यटकों की भीड़-भाड़ से दूर कुछ ऐसे ही ट्रेक्स पर जाना अविस्मरणीय अनुभव रहा, जहाँ स्वयं अपनी आवाज़ भी शोर सी प्रतीत हुई।प्रकृति से वो गुपचुप सी गुफ़्तगू समस्त इंद्रियों से होती हुई सीधे मन पर प्रभाव छोड़ रही थी। शब्दों से परे है वो अनुभव, जब झरने से गिरती जलराशि बारीक सी बूंदों से छेड़ रही थी और वो सौंधी सी ख़ुशबू जो किसी भी इत्र को कभी भी मात दे सकती है। बीच घने जंगल के कच्चे रास्ते से गुजरते हुए,धीमे से फुसफुसाती हवा और दूर कहीं बजता कलकल का मधुर संगीत, खुद-ब-खुद मचल जाते कदम उस ओर बढ़ने के लिए, नदी के करीब आते ही हवा में अचानक ठंडक का बढ़ जाना, यही तो थे वो कुदरती एयर कंडीशनर जो एक अलग सी स्फूर्ति देते हैं तन-मन को ।

नागर :

 मिली है गोद कुदरत की, पले दुश्वारियों में हम।

सफ़र आसाँ नहीं तो क्या, रहें हम मौज में हरदम।

 

ऊँचे-ऊँचे दुर्गम पहाड़ों पर बने छोटे-छोटे कच्चे छप्पर वाले घर, जहाँ तक आने-जाने का मार्ग ही हम जैसे शहरी और आरामपसंद लोगों की सांस फुला दे, जब उन्हीं रास्तों पर छोटे-छोटे बच्चों को मीलों का सफ़र हर दिन तय करके स्कूल आते-जाते देखा तो एकबारगी लगा कितना मुश्क़िल है जीवन इन पहाड़ों में बसे लोगों का ! हम जिसे ट्रेकिंग कहकर एडवेंचर ट्रिप के लिए जाते और बहुत खुश होते अपनी उपलब्धि पर, वही उनके लिए रोज की वाकिंग है

       नागर के समीप बसे गाँव में घूमते और स्थानीय निवासियों की दिनचर्या देखते समझ आया, "जितनी कम ख़्वाहिशें, उतनी ही अधिक खुशियाँ" । भौतिक सुविधाओं से दूर, प्रकृति के करीब, हर पहाड़ी के चेहरे पर सदाबहार मुस्कुराहट, मिलने-बोलने में सहज भोलापन और मदद करने को सदा तत्पर... अपने ही खेत और आँगन में उगे धान, फल-सब्जियों और गाय के शुद्ध दूध-घी ने जहाँ आत्म-निर्भरता दी है, वहीं सुकून और संतुष्टि भी । घाटियों में बने स्कूल, कॉलेज देख बेहद खुशी हुई कि शिक्षा के प्रति भी जागरूक हैं और साथ ही परिवार नियोजन भी शहरों से कहीं बेहतर ... बच्चों के खिलखिलाते चेहरे और कंधे पर स्कूली बस्ते, बाल-श्रम नहीं भोला बचपन मुस्कुराता हुआ ।

बस एक ही ख़्याल बार-बार आता रहा... "काश मैं भी कभी इन पहाड़ों में आकर बस जाऊँ"

पिछली बार 15 वर्ष पूर्व जब मनाली गयी थी तब सर्दियाँ थी और लगातार बर्फबारी भी हुई थी दो दिनों तक, रात को पारा शून्य से कई डिग्री नीचे चला जाता था और सुबह चारों तरफ बर्फ की चादर से ढके देखे थे घर, वही समय सैलानियों को भाता है पर जब उस कड़ाके की ठंड में अलसुबह अपने होटल के बाहर घर में किसी को कपड़े धोते और सुखाते देखा था तब सिहरन सी दौड़ गयी थी। इसलिए भली-भाँति जानती हूँ कितना कठिन होता है पहाड़ों पर जीवन , फिर भी जाने क्यों ये ऊँचे-ऊँचे पहाड़ मुझे हमेशा अपने से लगते हैं ... "कुछ तो है इनसे राब्ता !"

पैराग्लाइडिंग और रिवर राफ्टिंग :

"क्या आपने पहले कभी की है पैराग्लाइडिंग ? हमारी तो डर के मारे हालत खराब है। अभी पक्का नहीं ऊपर जाकर सोचेंगे करनी है या नहीं..", जीप में मेरे साथ बैठे चार युवा लड़कों में से एक ने कहा।

ऊँची पहाड़ियों से घिरी हरी-भरी वादियों में संकरे और उबड़-खाबड़ रास्ते पर तेजी से ऊपर की ओर दौड़ती जीप में बैठे हुए मन में अजीब सा रोमांच था, पर ये देख कर हैरान थी कि मुझसे लगभग आधी उम्र के युवा इतना डर रहे थे और मुझे क्यूँ डर नहीं लग रहा था ? इसका जवाब तब मिला जब कुछ ही देर बाद मैं सेफ्टी बेल्ट की सुरक्षा के सहारे हवा में तैर रही थी , पहाड़ की ऊंचाई से चार कदम आगे बढ़कर खुद को हवा के आसरे पर छोड़ देना और फिर उसी हवा द्वारा मुझे अपने आगोश में ले लेना ...उस क्षण मैं थी और चारों तरफ हरियाली से ढके पहाड़,बस हवा गुनगुना रही थी, सहला रही थी मेरा हाथ थामे जैसे सालसा कर रही हो मेरे साथ  मन किया बस वक़्त वहीं रुक जाए ! लगभग 15 मिनट की वो उड़ान... एक ख़्वाब पूरा हुआ उन्मुक्त आकाश में पंछी सा उड़ने का ख़्वाब ... पर मंज़िलें अभी और भी हैं!

 

अज्ञात और अप्राप्य (जिसकी चाहत हो और प्राप्त न हुआ हो) के प्रति संदेह और भय उतने ही हमारे व्यक्तित्व या वुज़ूद का हिस्सा हैं जितनी हमारे मन में कहीं दबी हुई ख़्वाहिशें और ख़्वाब (जिन्हें जागती आँखों से देखा हो)। यकीन मानिए, अगर कोई डर है, झिझक है तो वक़्त रहते उस पर विजय पा लेना सबसे अधिक खुशी देता है।

          जाने नदिया ज़िन्दगी सी या ज़िन्दगी नदिया सी पर ये उतार-चढ़ाव ही तो इन्हें ख़ूबसूरत बनाते हैं वरना ठहरी हुई झील से तो कुछ ही देर में ध्यान भटक जाता है और चंचल मन फिर ढूंढ़ने लगता है नए आकर्षण !

बर्फीला पानी, झूमती, उछलती, नाचती हुई लहरें और उस पर आसमान से बरसता प्यार, रिमझिम बरसात ... क्या इससे बेहतर कोई शाम हो सकती थी रिवर राफ्टिंग के लिए ? नावचालक सहित 6 यात्री निकल पडे थे पार्वती नदी का आँचल थामे और मन हिलोरे ले रहा था ऊंची-नीची लहरों के साथ जैसे माँ बच्चे को झुला रही हो .... कभी तेज प्रवाह में बहते अचानक ऊपर को उछाल देना तो कभी अचानक अपने स्नेह भरे आँचल में समेट लेना .... भीगते, झूमते, शोर करते जाने कब 10 km का सफर खत्म हुआ पार्वती और व्यास के समागम तक का जहाँ दो नदियाँ दो बहनों की तरह साथ-साथ बहती हैं पर अपना वजूद फिर भी नहीं खोतीं और अपने रंग-रूप के अंतर से आसानी से पहचानी जा सकती हैं (दोनों नदियों का पानी अलग-अलग रंग का है)| एक ही दिन में दो अद्भुत अनुभव और हम भीगे-भीगे उन ख़ूबसूरत यादों को लिए लौट चले अपने कॉटेज की ओर एक आख़िरी रात ही तो बची थी मनाली में जो गुफ़्तगू में ही गुज़र गयी, आख़िर हर इक बचे हुए लम्हे को समेट कर हमें अलसुबह निकलना था चंडीगढ़ के लिए ....

                खूबसूरती तो चप्पे-चप्पे में बिखरी है बस वो नज़र चाहिए जो उसे ढूंढ सके !

 

15 साल पहले जिन वादियों से मुलाक़ात हुई थी मनाली में, उनमें इस बार जंगली घास की तरह बेतरतीब ढंग से बड़े-बड़े होटल उगे हुए देखे ... घाटियों में पेड़ों की जगह घरनुमा गेस्ट हाऊस भी दिखे जो मख़मली कालीन में पैबंद से दिखे। जाने से पहले ही जानती थी यही सब दिया होगा अंधाधुंध बढ़ती हुई आबादी ने ! नहीं वहाँ के बाशिंदों की नहीं ये तो वो आबादी है जो वहाँ फैली कुदरत की अकूत संपत्ति का तेजी से व्यवसायिक लाभ के लिए दोहन करने आ पहुँचे हैं और अपशेष में प्रतिदिन छोड़ रहे हैं कंक्रीट और कंक्रीट । पर्यटन से आय वहाँ के बाशिंदों को भी हो रही है, इसमें कोई दोराय नहीं पर एक बड़ा हिस्सा उन धनकुबेरों का है उस आय में, जिन्होंने अपनी 'पहुँच' से उन ख़ूबसूरत वादियों में उगा दिए हैं बहुमंजिले होटल, हालाँकि वहाँ के स्थानीय बाशिंदे भी अब होड़ में आ गए हैं और सच कहूँ तो कसोल और मणिकरण की दुर्दशा देखकर बरबस ही पुरानी यादें आंखों के आगे घूम गयीं जब आसमान छूते बड़े-बड़े चीड़ के पेड़ घनी वादियों में लहलहाया करते थे और अब वहाँ कंक्रीट, कूड़ा और हवा में घुली ड्रग्स और दारू जो युवाओं का सबसे बड़ा आकर्षण है ।

 

दर्द से मन भारी था तो उगलना जरूरी था ताकि नई ख़ूबसूरत यादों को दिल में जगह मिल सके , सारी कड़वाहट वहीं छोड़कर हम वापसी के सफ़र पर निकल पडे इस उम्मीद के साथ कि प्रशासन बहुत जल्द कुछ सख्त कदम उठाएगा इस ओर ......

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विनीता 'किरण'

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