एक ख़त तुम्हारे नाम

तुम अक्सर गुज़रते रहे मेरे ख़्यालों की रहगुज़र (रास्ता) से और मैं सोचा करती ...तुम ऐसे होंगे, तुम वैसे होंगे, यूँ हँसते होंगे,  यूँ बोलते होंगे.....जब मेरा नाम लोगे तो कैसे मुस्कुराओगे, क्या तुम्हारी आँखों में मैं वो सब पढ़ पाऊँगी जो अक्सर मेरे ख़्वाबों में आकर चुपके से कह जाते हो मुझे? हर गुज़रते दिन के हर लम्हे में तुम्हारी छवि गढ़ती रही, तुम्हें अपने काँपते हाथों से थोड़ा-थोड़ा उकेरती रही... डरती थी कहीं कुछ बिगड़ न जाए और जब तुम मिलो तो तुम्हें पहचान न सकूँ ! रंगों से खेलते हुए अक्सर यूँ ही कितने कैनवास रंग डाले, पल भर को नहीं सोचा कोई रंग बिखर जाएगा या अपनी परिधि (सीमा) से बाहर बह जाएगा ...पर जब भी तुम्हारे नाक-नक़्श अपने मन के कैनवास पर उकेरती, हाथ काँपने लगते इस अनजाने से डर से कि कहीं कोई रेखा छूट न जाए, कोई रंग हल्का या कोई रंग चटख न हो जाए... हाँ भर देना चाहती थी सारे रंग तुममें क्योंकि जानती थी तुमसे मिलकर ही ये सारे पूरे होंगे वरना सभी अधूरे होंगे, फीके होंगे ... कैसे कहूँ कितना इंतज़ार है तुमसे उस पहली मुलाक़ात का, जब शब्दों की सीमा टूट जाए ! बस तब तक इन शब्दों के साथ..

©विनीता सुराना किरण

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