चोरी-चुपके

अरसे पहले ज़मींदारी समाप्त हुई तो बिरजू को भी एक छोटा टुकड़ा ज़मीन का मिला, पर बंजर, ऊपर से पानी का कोई स्रोत नहीं । वर्षों की अथक मेहनत और सरकारी सहायता से कुछ संसाधन जुटा कर खेती शुरू की और समय आने पर फसल लहलहाई । सारा परिवार ख़ुशी में डूबा हुआ था और ऐसे में जमींदार के घर से न्यौता आया सहभोज का । सभी ख़ुशी-ख़ुशी कुछ न कुछ ले गए अपनी ओर से सहभोज में , छक कर खाया, गाना बजाना हुआ, खूब नाचा बिरजू भी गाँव वालों के साथ और नशे में धुत्त, आकर घर में सो गया, खलिहान की चौकसी भी भूल गया । सुबह कुछ छेड़छाड़ सी लगी खलिहान में पर  किसी जानवर की करतूत समझ खुद को कोसा खुद की लापरवाही के लिए और जुट गया फिर अपने काम में। यही हाल सारे गाँव का था पर दोष किसे देते , सारा गाँव तो साथ ही था रात भर,  उधर ज़मींदार के खलिहान महक रहे थे नए अनाज की खुशबू से, वो भी मुफ़्त का !

©विनीता सुराना किरण

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