धरणी (कहानी)
धरणी सोच रही थी ज्यादा बुरा क्या था ? एक ग़रीब परिवार में जन्म या बालपन में हुआ उसका विवाह या फिर आरक्षित कोटे में उसके पति का राजकीय सेवा में चयनित होकर अफ़सर बन जाना ! अपनी ज़िन्दगी के 20 बसंत पार करते-करते धरणी 2 बेटियों की माँ बन गयी और पूरी तरह रम गयी अपनी गृहस्थी में । पर मदन की महत्वाकांक्षा उसे शहर ले गयी ...स्नातक की उपाधि फिर आरक्षित कोटे में राजकीय सेवा में चयन और बन गया अपने 2500 की आबादी वाले गाँव का पहला "बड़ा साब"। शहर में गुज़ारे 5 वर्षों ने मदन के रहन-सहन के साथ उसकी सोच को भी बदल डाला। कल तक साँवली सलोनी सी धरणी अब उसे अनपढ़ गँवार लगने लगी थी...पिछले 5 वर्षों में यदा-कदा छुट्टियों में गाँव आने वाला मदन अब चिट्ठियों से ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेता । व्यस्तता की आड़ में धरणी से एक निश्चित दूरी बना ली थी मदन ने ...बेटियों का मोह महीने-दो महीने में गाँव और घर की ओर खींच लाता । वो दिन जैसे धरणी को दिवाली से लगते ...रात को दो घडी का सामीप्य भी स्वर्ग का सुख लगता । फिर गुज़रते वर्षों के साथ वो सुख की घड़ियाँ भी सिकुड़ती चली गयीं और एक दिवाली उसके घर में जलते 100 दीये भी उसके जीवन में अचानक आई अमावस का अँधेरा दूर न कर सके। दिवाली की शाम अचानक मदन का सुरभि का हाथ थामे घर की चौखट पर आना धरणी के लिए दिवाली को सदा के लिए अभिशप्त कर गया । गोरी-चिट्टी शहरी युवती सुरभि मदन के ही विभाग में उसकी अधीनस्थ अधिकारी बन कर आई थी । उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार की सुरभि ने घरवालों के ख़िलाफ़ जाकर आर्य समाज में मदन से विवाह किया था परंतु मदन तो अपने माता-पिता और धरणी को बताने की भी हिम्मत न जुटा पाया था बस अचानक उसे घर ले आया उस दिन।
पूरा परिवार सन्न रह गया सुरभि का सच जानकर ! मदन के माता-पिता अपने अफ़सर बेटे के सामने अधिक नहीं बोल सके और रही-सही कसर सुरभि के रंग-रूप और उसके लाये कीमती कपड़ों और गहनों ने पूरी कर दी। धरणी पर तो जैसे क़हर टूट पड़ा था पर अपने आँसू पलकों में भींचकर , चुपचाप रसोईघर में जाकर पकवान बनाने में जुट गयी। दोनों बेटियाँ कुछ देर की झिझक के बाद सुरभि के लाये तोहफ़े लेकर उसके साथ घुलमिल गयीं, यूँ भी उन मासूम बच्चियों को अपनी माँ पर टूटे क़हर का कहाँ भान था। रात्रि भोजन के बाद मदन धरणी को लेकर कमरे में गया तो धरणी के सब्र का बाँध टूट गया और वो फूट-फूट कर रोने लगी।
"क्या क़सूर था मेरा जो इतनी बड़ी सज़ा दे दी मुझको? क्या कमी रह गयी मेरे प्रेम में कि आपको दूसरा ब्याह करना पड़ा? एक बार भी मेरा और हमारी बेटियों का नहीं सोचा? अब हमारा क्या होगा?" रोते-रोते धरणी बोलती जा रही थी।
"नहीं तेरा कोई क़सूर नहीं , सब हालात और समय का फ़ेर है । क़सूर तो उन रीति-रिवाज़ों का है, जिनकी वज़ह से हमारा ब्याह इतनी छोटी उम्र में हो गया। अब देख न धरणी मेरा और तेरा रहन-सहन, बोली-चाली में कितना अंतर आ गया । चाहकर भी तुझे शहर नहीं ले जा पाया , कैसे मिलवाता अपने पढ़े-लिखे अफ़सर साथियों से तुझे। वहाँ तो किसी को अपने ब्याह और बेटियों के बारे में भी नहीं पता । फिर जब एक साल पहले सुरभि मेरे विभाग में अफ़सर बनकर आयी तो जाने कब कैसे हम दोस्त बन गए और फिर वो और मैं एक दूजे से प्रेम करने लगे। वो बड़े घर की इकलौती बेटी, अच्छा ख़ासा रुतबा है उसके परिवार का समाज में। हम दोनों की जोड़ी भी खूब जमती है ...सब कहते हैं हम दोनों एक दूजे के लिए बने हैं । इसका मतलब ये कतई नहीं कि तेरे और बेटियों के प्रति अपने फ़र्ज़ को भूल गया मैं ..यहाँ गाँव में किसी को मेरी दूसरी शादी के बारे में पता नहीं चलेगा । ये घर हमेशा तेरा ही रहेगा और मैं हर महीने पूरा खर्चा भेजता रहूँगा। महीने दो महीने में मैं स्वयं भी आऊँगा, बस एक बात तुझे मेरी माननी पड़ेगी कि तू कभी इस बारे में किसी को नहीं बताएगी ", एक ही सांस में जैसे मदन ने मन का सारा बोझ उतार लिया।
धरणी कुछ कहती उससे पहले ही सुरभि अंदर आ गयी और उसे यूँ अचानक आया देख धरणी ने पल्लू से आँसू पोछ लिए और फ़ीकी सी एक मुस्कान उसके होंठों पर तैर गयी।
"जानती हूँ आपकी कसूरवार हूँ मैं परंतु लाख़ चाहकर भी स्वयं को रोक नहीं पायी और जाने कब इनसे प्रेम हो गया। इन्होंने मुझे तभी आपके बारे में बता दिया था परंतु तब तक पीछे लौटना बहुत मुश्किल था। माफ़ी नहीं माँगूंगी क्योंकि सब जान बूझकर , सोच समझकर किया । आपको और बच्चियों को कभी कोई तक़लीफ़ नहीं होगी, वो मेरी भी बच्चियाँ हैं अब। आपसे एक ही विनती है इन कागज़ात पर अपना अंगूठा लगा दीजिये", कुछ कागज़ धरणी की ओर बढ़ाते हुए सुरभि बोली।
"ये कैसे कागज़ हैं जी , क्या लिखा है इनमें?" एक अनजाना डर धरणी को बेचैन कर रहा था ।
"धरणी ये बस एक कानूनी औपचारिकता है और कुछ नहीं। सच मान तू हमेशा मेरी पत्नी रहेगी, बस कानूनी शादी करने के लिए हम दोनों को इस पर तेरे अंगूठे की जरुरत है, क्योंकि कानून दूसरी शादी को नहीं मानता , पहली को तलाक़ दिए बिना", मदन धरणी से आँखें चुराते हुए बोल रहा था।
धरणी कुछ न बोल पायी बस मूर्ति की तरह दोनों को देखती रही । एक शब्द ने उसके जीवन का अर्थ ही बदल दिया था .... (क्रमशः)
©विनीता सुराणा 'किरण
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