आ जाओ न
कुछ तो ज़रूरी था
जो सोच रही थी
कि तुम फिर चले आए ख़्यालों में
और देखो फिर भूल गयी मैं सब कुछ
यूँ बार-बार ध्यान भटकाते हो
आख़िर क्या चाहते हो??
सुनो,
ये रोज का आना-जाना
अब छोड़ो भी,
आ जाओ न
एक बार
आख़िरी बार
कभी न जाने के लिए ...
©विनीता सुराना किरण
Comments