उलझन

अक़्सर उलझे से नज़र आते हो
पर सुनो,
तुम ऐसे ही पसंद हो मुझे..
यूँ रेशा-रेशा तुम्हें सुलझाते,
तुम्हीं में उलझ जाती हूँ अक़्सर
और सुलझने की कोशिश में
वो तुम्हारा
करीब आ जाना
पल भर को ही सही
एक दूसरे में खो जाना
बस यही कश्मकश
साँसें देती है
हमारी अंजान मुहब्बत को !
©विनीता सुराणा 'किरण'

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