धरणी की कहानी (भाग 3)

सहमी , सुबकती रश्मि को जैसे तैसे घर लेकर पहुँची धरणी तो ये देखकर हैरान रह गयी कि घर में जमघट लगा है लोगों का । सामने देखा तो संतोष बैठा गाँव वालों के साथ बतिया रहा था। धरणी को आता देख संतोष जल्दी से उठकर उसके पास आया और मुस्कुराते हुए धीरे से बोला, "तेरे चुप रहने में ही छोरी की भलाई है , अभी तक छोरी साफ़ सुथरी है पर तेरी जुबान खुली तो बदनामी जरूर होवेगी और फिर कौन ब्याह करेगा इससे। इसीलिए तू भी चुपचाप रह और मैं भी मेरे रास्ते चला जाऊँगा चुपचाप।" फिर थोड़ी ऊँची आवाज़ में बाबूजी की ओर देखकर बोला, " चाचाजी लो आ गयी भौजाई और छोरी , मैंने कहा था न दोनों आ जावेंगी। अब मैं तो चलूँ, थोड़ी मरहम पट्टी कराकर घर जाऊँगा। आप छोरी को संभालो , बहुत डर गयी है।" रश्मि डरी सहमी अपनी माँ से लिपटी आँखें बंद किये खड़ी थी।
           संतोष के साथ सब गाँव वाले भी चले गए और धरणी बाबूजी के पास आई तो वे बोल पड़े, "बहु रश्मि ठीक तो है न ? उस जंगली जानवर ने इसे चोट तो नहीं पहुंचाई ? भला हो संतोष का , जो वहाँ समय पर पहुँच गया और बिटिया को अपनी जान पर खेल कर बचा लिया ।"
       बाबूजी की बात सुनकर धरणी का सर चकरा गया। उसके कलेजे में आग लग गयी संतोष की मक्कारी देखकर पर अपनी मासूम सहमी बच्ची को देखकर उस समय चुप रहना ही बेहतर समझा। सरपंच के बेटे के ख़िलाफ़ उस समय वह कुछ कह भी देती तो कोई उसकी बात का विश्वास नहीं करता और उल्टा उसकी बच्ची बदनाम हो जाती। उसके और रश्मि के अलावा कोई और सबूत भी तो नहीं था संतोष के कुकर्म का। जाने कौन से जानवर की कहानी गढ़ कर संतोष ने सबकी आँख में आसानी से धूल झोंक दी । उसने अपनी बच्ची की रक्षा तो कर ली उस समय पर उसके अपराधी को सज़ा नहीं दिला पाने की मजबूरी, उसको मन ही मन खाए जा रही थी।
            रात को दोनों बेटियों को तो सुला दिया पर उसकी आँखों में नींद नहीं थी। सोच रही थी आज तो बेटी को बचा लिया पर आख़िर कब तक संतोष जैसे दरिंदों से दोनों को बचा पाएगी। ख़ुद की और आने वाले तानों को सह भी गयी परन्तु इन दोनों की रक्षा किस तरह करेगी। फिर मन ही मन एक फ़ैसला करके बिस्तर पर लेट गयी बेटियों के पास और सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगी।
            अगली सुबह बहुत ख़ामोशी से आयी, शायद उसे भी आने वाले तूफ़ान का अंदेशा था। धरणी ने आज एक अरसे बाद शीशे में ख़ुद को निहारा, नया लहंगा-चोली पहना, बाल क़रीने से काढ़े और थोड़ा श्रृंगार भी किया। बाबूजी का सामना न हो इसलिए पीछे के दरवाज़े से बाहर निकल गयी। सर पर पल्लू लिए और कौना मुँह में दबाये तेज़ क़दमों से सरपंच के गौदाम की ओर चली जा रही थी । गोदाम के सामने ही बरगद का पेड़ था, उसके पीछे छुपकर देखा तो संतोष कुर्सी पर बैठा अपने आदमियों से बात कर रहा था। करीब 10 मिनट के बाद उठा और अपनी मोटरसाइकिल पर बैठकर रवाना हो गया। उसे वहाँ से उठते देखकर धरणी चुपके से आगे के कच्चे रास्ते पर पहुँच गयी जो सरपंच के खेतों की ओर जाता था। जब संतोष वहाँ पहुँचा तो धरणी को यूँ बीच सड़क खड़े देखकर रुक गया। एक बार नज़र पड़ी तो हटा न सका और पास जाकर बोला, "क्या बात है धरणी आज तो सवेरे सवेरे भाग्य खुल गया मेरा जो तेरे दर्शन हो गए, यूँ रास्ते पर खड़ी किसका इंतज़ार कर रही है?"
"तेरा ही इंतज़ार कर रही थी संतोष , कुछ कहना था अकेले में तेरे से", धरणी मुस्कुराते हुए बोली।
"क्या कहना है बोल न, इसी बहाने दो घड़ी तुझे नज़र भर देख भी लूंगा", बेशर्मी से आँख मारते हुए संतोष बोला।
"यहाँ तो सब आते जाते हैं कहीं शांति से बैठ कर बाते कर लें " , धरणी लज्जाते हुए बोली।
"हाँ ठीक बोली चल खेत वाले कमरे पर चलते हैं, वहाँ कोई नहीं आएगा अभी", धरणी का ये बदला हुआ रूप देख संतोष हैरान भी था और मन ही मन खुश भी।
धरणी से आने की कहकर वो आगे बढ़ गया और धरणी जब खेत पर पहुँची तो संतोष खाट बिछा रहा था कमरे में । चादर डाल कर बैठने का इशारा किया उसको तो धरणी एक किनारे पर बैठ गयी पाँव लटका करसंतोष कुछ बोलता इससे पहले ही धरणी बोल पड़ी, "कल जो हुआ उसी के लिए माफ़ी मांगने आयी हूँ तुझसे, तेरे पर हाथ उठाया पर मैं भी क्या करती तूने जो रश्मि के साथ किया वो भी तो सही नहीं था न ? मैं तो तेरे को इतना पसंद करती थी और तूने मेरी बेटी को ही ... छी !!! अब क्या सोचूँ तेरे बारे में तू ही बता दे ?"
     "मुझे माफ़ कर दे धरणी ! जाने मेरी बुद्धि में क्यों पत्थर पड़ गए जो ऐसा कर बैठा। मैं तो तुझे कबसे पसंद करता हूँ पर तूने ही कभी भाव नहीं दिया। मुझे क्या पता था कि तू भी मन ही मन मुझे पसंद करती है वरना रश्मि तो मेरी बेटी जैसी है । चल अब माफ़ कर दे और तू है तो कोई और का क्या करना मुझे? " संतोष धरणी के बाजू में आ बैठा था खाट पर
       "पर तू रश्मि को कैसे ले गया अपने साथ , वो तो सहेलियों के साथ जाती- आती है स्कूल?" धरणी ने पूछा
         "अरे वो तो छोरी को मैं बोला कि तेरी माँ ने खेत पर बुलाया है, उधर ही जा रहा हूँ आजा छोड़ दूंगा।" संतोष बेशर्मी से बोला, "पर अब ये सारी बातें छोड़ तू है तो और कोई का क्या करना, बस तू मुझे खुश करती रह मैं तुझे खुश रखूँगा। तेरे लिए सब करूँगा जो तू चाहेगी मेरी जान" कहकर धरणी के कंधे पर अपना हाथ रख दिया।
       एक झटके से धरणी उठ खड़ी हुई और कमर में छुपाया चाक़ू निकाल संतोष की गर्दन पर रख दिया, " नीच ! तेरे जैसे दरिंदे पर धरणी थूके भी नहीं जो मासूम बच्चियों पर गन्दी नज़र रखता है। ये सब नाटक तो सारे गाँव वालों तक सच पहुँचाने के लिए था, ताकि उनकी आँखों पर पड़ा पर्दा तो हटे और फिर कभी तेरे जैसे नीच किसी छोरी को गन्दा करने की सोच न सकें।"
       "अच्छा और तुझे लगता है गाँव वाले तेरी बात का विश्वास कर लेंगे? जा जाकर बोल दे जो बोलना है।" संतोष ठहाका लगाते हुए बोला
        " मेरी नहीं तेरी बात का तो करेंगे न? बाहर नज़र घुमा कर देख ज़रा ", कहते हुए धरणी ने दरवाज़ा पूरा खोल दिया ।
बाहर का नज़ारा देखते ही संतोष के चेहरे का रंग उड़ गया। गाँव के लगभग हर घर का कोईकोई सदस्य वहाँ मौज़ूद था।     
          धरणी बाहर आकर अपनी पड़ौसन और सखी शुभा के गले लग गयी, आख़िर उसी के साथ ने तो ये हिम्मत दी थी धरणी को । पिछली शाम उसी को सारा सच बताने की हिम्मत जुटा पायी थी धरणी और उसी के दिए हौसले ने उसको यहाँ तक पहुँचने में मदद की थी। जब धरणी अपने ध्येय की ओर बढ़ी तब शुभा ने ही सब गाँव वालों को इकठ्ठा कर वहाँ लाने का बीड़ा उठाया था । अपनी बेटी की इज़्ज़त और स्वयं को भी दाँव पर लगाया था उसने ताकि फिर कोई रश्मि अपनी मासूमियत को न खोए संतोष जैसे दरिंदों के कारणउस दिन गाँव के हर व्यक्ति की नज़र में धरणी की एक अलग छवि बन गयी, और वो नज़रें ख़ुद-ब-ख़ुद झुक गयी थीं , जो कभी उसे शूल सी चुभा करती थीं। धरणी के नए जीवन का आरम्भ था ये, एक ऐसे सफ़र की शुरुआत जहाँ परीक्षाएं कुछ और भी होंगी मगर वो थमेगी नहीं क्योंकि अब वो अकेली नहीं... हम और आप सब साथ हैं उसके सफ़र में ....
(इति नहीं आरम्भ)💐
©विनीता सुराणा 'किरण'

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