अज़नबी

अज़नबी है फिर भी तुझसे राब्ता क्यूँ है।

गर मुहब्बत ही नहीं तो वास्ता क्यूँ है।

अक़्स अपना ही दिखाई अब नहीं देता,

आइना भी बस तुझे पहचानता क्यूँ है।

©विनीता सुराना 'किरण'

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