चाहत इश्क़ मुहब्बत

दर्द भी है,
रंजो-गम भी,
सैलाब सा ले आते हैं चश्म,
अश्क़ बहते है बेसाख़्ता,
वज़ह कम तो न दी ज़िन्दगी ने
ग़मगीन होने की...
क़लम भी तड़प उठी अक़्सर
कुरेदने को लहू में भीगे अल्फ़ाज़
ज़िन्दगी के खुरदरे पन्नों पर !
जब भी देखा , जहाँ भी देखा
उदासी थी तन्हाई भी
बेवफ़ाई, रुसवाई भी
गुलों से ज़ियादा
ख़ार थे
मगर फ़िर भी
न जाने क्यूँ
इस दिल ने तलाश ली
राह-ए-मुहब्बत,
खुशबू सूखे फ़ूलों में भी,
बो दिए बीज़ खुशियों के,
नम आँखों की जमीं पर,
और बेबस कर दिया
क़लम को लिखने के लिए
चाहत..इश्क़...मुहब्बत !
©विनीता सुराना 'किरण'

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