उनकी दास्तान (4)

   
   इधर तो लाशें जिन्दा हो रही थी। उधर वो कनीज़ जिन्दा ही एक लाश की तरह बिस्तर पे पड़ी थी। आंखों से कान तक आंसुओं ने फिर काजल के डोरे खींच दिये थे और वो रह-रह कर सिसक रही थी। उस पार से लौटते वक़्त ही वो दरिया में कूद मरना चाहती थी मगर वो ऐसा नहीं कर सकी थी। नवाबजादे की शादी में किसी बदशकुनी का इलजाम वो अपने सर नहीं लेना चाहती थी। लेकिन अब अपनी मुहब्बत के दीदार की हसरत बढ़ गयी थी। आमने-सामने ना सही छिपकर किसी ओट से सही... वो अपनी नज़रों की प्यास बुझा लेगी। ये सोचकर एक झटके के साथ उठी लकिन उसी तेजी से पलंग में उलझे हुर्इ उसके दुपटटे ने खींचकर फिर से उसे बिस्तर की गोद में गिरा लिया। वफ़ादारी ने उसे ख़याल दिलाया कि अगर बाहर किसी ने शहजादी के बारे में पूछा तो वो क्या जवाब देगी? जुबां चुप रही तो आंखे चुगली कर देगी और उसकी सहेली का राज़ खुल जायेगा।

उसने अपनी हसरतों का गला अपने ही हाथों घोटना मंजूर कर लिया। उसे अपने हाथों अपने दिल की दुनिया उजाडना मंजूर था मगर शहजादी पर उस आग की आंच भी आये... ये उसे गवारा नहीं था। अपने घुटनों में सर छुपा कर सुबकने के सिवा वो कुछ ना कर सकी। हर एक सोच पर सिसकी तेज और तेज होने लगी मगर अपनी बेबसी पर जी भर कर रोना भी उसकी किस्मत में नहीं था। उसे अपनी सिसकियों को पी जाना पडा। ऐसे मौके पर जब नवाबजादे की शादी का जश्न चल रहा हो, नवाब का नमक कैसे उन सिसकियों को बाहर जाने देता?

       और ये वाक़या उन तीनों की रोजमर्रा की जि़न्दगी का हिस्सा बन गया। वो परवाना रोजाना उस शमा के दिये हुए बेडे रूपी पंख से उड़कर पहुंचता और वो हसीना उस कनीज़ की चोटी की सीढ़ी से उतरकर आती और वो दोनों आशिक़ कबि्रस्तान में पहुंचकर अपनी मुहब्बत की शमअ रोशन करते।

हर रात घडियाल जब पहली घडी बीतने का ऐलान करता तो नवाब की हवेली के पछिवाडे एक सांप सा लटकता और नागिन की तरह लिपटी वो नाज़नींन उस पर फि़सल कर उतरती। हर सुबह मुर्गे के बांग देने पर मुर्दे सोने चले जाते और कस्बे में लोग उठने की उहापोह में होते तब हवेली के पीछे फिर एक रस्सा लटकता और
इस तरह कर्इ दिन गुजर गये और एक दिन मुश्क की तरह उनके इश्क का चर्चा भी लोगों की जुबान पर दबे-दबे कदमों से आया। कबि्रस्तान के अन्धेरे वीरानों में भी उनकी मुहब्बत का उजाला इन्सानी आंखों ने देख लिया। पहले तो उन आंखों ने उसे रूहानी-शैतानी कारनामा समझा, लेकिन नवाब की हवेली से भी उन्हीं गीतों के बोलों को फूटते सुना तो कहानी का एक-एक हिस्सा जोड़ लिया। ये आंखे कबि्रस्तान के निगहबान की थी।

ऐसे किस्सों के पंख बहुत तेज फड़फड़ाते हैं। नवाब से कहने की तो किसी की हिम्मत ना हुर्इ लेकिन जब हवाओं पर तैरते हुए ये अफसाने नवाब के कानों तक पहुंचे तो अपनी लाडली से पूछने के बजाय उसकी सहेली से मालूम किया। वो राज जिसे अपने सीने में सात पदोर्ं के पीछे छिपाये हुए थी, जब यूं एक-एक पर्दे को चीरकर उसका सीना फोडकर निकल गया तो वो हक्की-बक्की रह गयी। वो ग़रीब एक कनीज़ थी.... उस पर नमक हरामी का इल्जाम लगाए लेकिन उसकी ज़्यादा बड़ी मुश्किल ये थी कि वो अपनी मुहब्बत का जि़क्र नहीं कर सकी। इस सिलसिले में कोर्इ सवाल भी नहीं किया गया।

    उस दिन एक जलजला सा आया था हवेली में। लेकिन उसी दिन ये फै़सला भी हो गया कि उन दो दिलों के दरम्यां कोर्इ दीवार खडी नहीं की जा सकेगी। ना दौलत की ना आबरू की। इसलिये उसी दिन नवाब अपनी बेटी के सकून की भीख मांगने उस पार उस खस्ताहाल खण्डहर में गया। कुछ देर के लिये अफरा-तफरी मच गयी और सबकुछ उलटा-पुलटा हो गया। लेकिन जब उस खण्डहर से वो रर्इस बाहर निकला तो अपनी बेटी के ज़ेवरों के लिये एक नग के एवज़ में अपना सबकुछ दे आया था। सिर्फ़ दो दिनों के कम फ़ासले से वो दरिया के दोनों किनारों को एक कर देने का कौल कर आया था।

     जब कनीज़ को मालूम हुआ कि नवाब को ये रिश्ता मंज़ूर हो गया है तो उसे यूं लगा कि उसके क़त़्ल की साजि़श अब अमल का जामा पहनने जा रही हो। दो दिन बाद वो कसार्इ उधर से शहनार्इ शक़्ल में छुरी लायेगा और निकाह की एक-एक रस्म से उसके गले पर घाव किये जायेंगें। जिन दोनों की मुहब्बत की बेल ने उसके गेसुओं के सहारे उतर कर ज़मीन में अपनी जड़े फैलायी थी वो जड़े उसके अपने वज़ूद को खा रही थी।

उस वक़्त उसने अपनी जि़न्दगी को भी अपने गेसुओं की तरह उलझा हुआ पाया। वो अपनी मुहब्बत का इज़हार भी नहीं कर सकती थी। रर्इसजादी की दोस्ती और उसका भरोसा, रर्इस के अहसान और ज़माने की उम्मीदें फिर एक ग़रीब को क़ुर्बानी देने के लिये मजबूर कर रही थी। उसका अपना अक़्स रह-रह कर उसके सामने आ खडा होता और पूछता कि कु़र्बानी का हक़ और रिवाज़ क्या सिर्फ़ ग़रीबों का दस्तूर है.

वो घुलती रही अपने आप में। ग़म में ग़ाफि़ल उस भटकती हवा का कोर्इ पता नहीं था वो कहां, किधर और कैसे बह रही है। नवाबजादी ने पूछा भी लेकिन वो बडी खूबसूरती से टाल गयी। तन्हार्इ के थोडे से लम्हे मिले तो अपने कमरे के कोने में घुटनों के बीच सर रखकर सिसकियों को दबाने की कोशीश कर रही थी। लेकिन जैसे आसूं उसका नसीब बन कर रह गये थे। उन दोनों की शादी का दिन गोया उसके क़त़्ल का दिन हो जब उसके क़त़्ल की साजि़श पूरी होगी।
        तो लगन तय हो चुका था और शादी में सिफऱ् दो दिन बाकी थे। कुछ बुजुर्गों ने नवाब को सलाह दी कि रस्म-ओ-रिवाज़ के लिये अब दो दिन तक बेटी को पर्दों में रखा जाये। नवाब ने बुजुर्गों का हुक्म सर आंखों पे लिया और शहजादी अपनी सहेली के साथ पर्दों में क़ैद कर दी गयी।

इस सब में आधे से ज़्यादा दिन बीत चुका था। पर्दों में क़ैद शहजादी ख़्वाबों के जंगल में आज़ाद हिरनी सी कुलाचे मार रही थी और उन नज़ारों का बयांन अपनी सहेली से कर रही थी। उसका एक-एक बयान सुनकर वो बेचारगी में अन्दर ही अन्दर चटक-चटक कर टूट रही थी।

नवाबजादी की मुस्कुराहटें और कहकहे उस पर बिजलियां बनकर गिरते थे। हर लफ़ज़ हथौड़े सा पड़ता था। उसे लगता था जैसे उसके होने वाले क़त्ल का तरीका उसे चटखारे लेकर बताया जा रहा हो। बर्दाश्त नहीं हो सका तो आख़िरकार वो रो पड़ी और शहजादी के पूछने पर उससे बिछुडने के ग़म और अपनी सहेली के किस्मत के सितारे को इतना बुलन्द होते देख कर ख़ुशी की बात कह कर टाल गयी।

लेखक - हुकम सिंह जी 

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