मरु और ताज़
ठहर जाते है कदम
बरबस ही
देखती हूँ जब
सुनहरी भोर में दमकती
संगमरमरी धवल धरोहर
इतिहास की, प्रेम
की,
वो हसीन ताज़महल !
सोचती हूँ
अजूबा है वाकई
एक ख़ूबसूरत इमारत,
जो समेटे है ख़ुद में कितना कुछ ....
जहाँ दफ्न है
एक प्रेम कहानी,
कुछ इबादतें
कुछ किस्से
कुछ भ्रांतियाँ
कुछ चीखें भी,
इश्क है
मुहब्बत है
जुनूं है
बेबसी भी......
तब याद आती है उन
रेतीले धोरों की
जो मेरे अपने हैं
जहाँ उजली सुनहरी धूप में
दमकते है एहसास मुहब्बत के,
और शीतल चाँदनी सजाती है
अनगिनत ख्वाब हसीन,
जो गवाह हैं
अमिट प्रेम गाथाओं के,
जो आज भी महकती है
मरू की कोमल रेत में
और देती है विश्वास
अनगिनत धड़कते दिलों को
एक शाश्वत प्रेम का......
नहीं हैं पत्थर से कठोर
न छुपाये है कोई राज़ कहीं
बस गूँज है तो नगमों की
जो मुहब्बतों ने गाये
आँसूं भी जज़्ब करते हैं
और सहलाते है उदासियों को
छुपा लेते हैं आग़ोश में
जब तन्हा हो दिल....
रुकते नहीं है तब क़दम
पुकारता है जब मरु
प्रीत है और प्यास है
इक हसीं एहसास है
दूर दिल से ताज़ वो
बस मरु ही पास है,
हाँ मरु से आस है !
©विनीता सुराना 'किरण'
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