एक बेनाम ख़त # 4
आज फिर एक नाक़ाम कोशिश !
हाँ ....नाक़ाम ही तो है
कोशिश तुम्हें अल्फ़ाज़ में बाँधने की
हर्फ़ जोड़ती हूँ जब भी
कुछ छूट ही जाता है ...
हाँ ....नाक़ाम ही तो है
कोशिश तुम्हें अल्फ़ाज़ में बाँधने की
हर्फ़ जोड़ती हूँ जब भी
कुछ छूट ही जाता है ...
देखो न ...ये बिखरे हुए पन्ने
कुछ आधे भरे,
जिनमें ज़िन्दगी है
कुछ लम्हें है तुम्हारे संग बिताये
कुछ शरारत में डूबे
कुछ मुहब्बत में भीगे...
कुछ आधे भरे,
जिनमें ज़िन्दगी है
कुछ लम्हें है तुम्हारे संग बिताये
कुछ शरारत में डूबे
कुछ मुहब्बत में भीगे...
कुछ आधे खाली,
मेरे उन ख़्यालों की तरह
जिन्हें लफ़्ज़ नहीं दे पायी
उन एहसासों की तरह
जो तुम तक नहीं पहुँचे...
मेरे उन ख़्यालों की तरह
जिन्हें लफ़्ज़ नहीं दे पायी
उन एहसासों की तरह
जो तुम तक नहीं पहुँचे...
आज भी तो अब्र घनेरे थे
जाने क्यूँ नहीं बरसे
जाने क्यूँ
छू नहीं पायी क़लम
तुम्हारी आँखों की वो गुलाबी कशिश
तुम्हारे लबों की वो शरारत
वो साँझ की लाली में
तुम्हारा बाहें फैलाकर ....मौन निमंत्रण
तुम्हारी शोख़ मुस्कराहट
जाने क्यूँ नहीं बरसे
जाने क्यूँ
छू नहीं पायी क़लम
तुम्हारी आँखों की वो गुलाबी कशिश
तुम्हारे लबों की वो शरारत
वो साँझ की लाली में
तुम्हारा बाहें फैलाकर ....मौन निमंत्रण
तुम्हारी शोख़ मुस्कराहट
एक और ख़त !
बेनाम और अधूरा ...
©विनीता सुराना 'किरण'
बेनाम और अधूरा ...
©विनीता सुराना 'किरण'
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