पन्द्रह अगस्त (दो लघु कथा )


देश अपनी स्वतंत्रता की ६९ वी सालगिरह मना रहा है, इसी ख़ुशी में जेल से 12 कैदियों को रिहा किया जा रहा था, उनमें एक काशी भी थी | सात वर्ष की सज़ा उस जुर्म के लिए जो उसने किया भी नहीं था परन्तु माँ की ममता कैसे अपने बेटे को सलाखों के पीछे जाते देखती सो ले लिया अपने सर उस हत्या का इल्ज़ाम जो एक दरिन्दे से उसको बचाते हुए उसके बेटे के हाथों हो गयी थी | 15 अगस्त का सूर्योदय उसके लिए आज़ादी लाया और बेटे को अपने सामने देख काशी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था | घर के दरवाज़े पर खड़ी बहू और गोद में एक नन्ही गुड़िया को देखकर तो काशी बावरी हुई जा रही थी, पर ये क्या बेटा तो उसे घर के पिछवाड़े की ओर लिए जा रहा था, “माँ तुम्हारे लिए वो पीछे वाले छोटे कमरे को तैयार करवा दिया है, तुम तो जानती हो न लोगों की जुबान ... आख़िर तुम भी तो नहीं चाहोगी कि तुम्हारे बेटे-बहू को किसी के आगे शर्मिंदा होना पड़े....” पिछवाड़े के उस अँधेरे कमरे में खाट पर बैठी काशी याद कर रही थी जेल की कोटरी का वो छोटा सा रोशनदान जिससे हर सुबह चुपके से सूरज की कुछ किरणें चली आती थी, उसकी आज़ादी की उम्मीद लेकर !
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15 अगस्त यानि स्वतंत्रता दिवस साथ ही तरुण और ऋचा की शादी की पहली सालगिरह भी | सुबह जल्दी उठकर ऋचा तैयार हुई और बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगी तरुण के उठने का, आख़िर उसे इतनी बड़ी खुशखबरी जो देनी थी | एम.बी.ए कर चुकी ऋचा को साक्षात्कार के लिए बुलावा आया था बैंगलोर स्थित बहुराष्ट्रीय कम्पनी से और उसे पूरी उम्मीद थी वो चुन ली जायेगी | जैसे ही तरुण उठा, उसने एक खूबसूरत गुलाब के साथ अपना कॉल लैटर उसके हाथ में रख दिया | जो ख़ुशी गुलाब को देखकर तरुण के चेहरे पर आई थी वो लिफ़ाफ़े के खुलते ही जैसे काफ़ूर हो गयी.... “ऋचा ये सब क्या है ? तुम्हें कम से कम मुझसे पूछना तो चाहिए था ...मुझे ये नौकरी-वौकरी पसंद नहीं है, उन्हें मना कर दो |” ऋचा के ज़वाब का इंतज़ार किये बिना ही वो उठ कर नहाने चला गया | नाश्ते की टेबल पर ऋचा ने तरुण को मनाने की कोशिश की पर तरुण टस से मस न हुआ | टीवी पर लाल किले से प्रधानमन्त्री सारे देश को स्वतंत्रता दिवस की बधाई दे रहे थे और ऋचा सोच रही थी कौन सा रास्ता चुने.... क्रांति का या शहादत का !
-विनिता सुराना ‘किरण’

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