आवारापन

जब से आँगन में ऊँची हुई है डोली
खामोशियाँ जश्न मनाया करती हैं,
रौनकें सिसकती है
दीवार के दोनों ओर,
उम्रदराज़ परछाइयाँ 
सिकुड़ती हैं
सिमटती हैं
गुमसुम सी
कराहती हैं
पिछवाड़े के बंद कमरे में...
अतीत से पीछा छुड़ा लिया
अब दावतों के दिन हैं
मदहोश है हर शख़्स
पर जुदा है ख़ुद से,
शाख़ से टूटे पत्ते की तरह
यहाँ-वहाँ उड़ता है
आवारा सा,
भटकता है
बंजारा सा...
जाने कहाँ ले जाएगा
ये बंजारापन,
ये आवारापन !
©विनीता सुराना 'किरण'

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