ओस से प्यास बुझती नहीं




एक वृक्ष था खड़ा
आँधियों की राह में
रोक न पाया उन्हें
धूल में वो मिल गया
बिखर गए थे पुष्प भी
पत्र भी विलग हुए
कली-कली थी शोक में
भ्रमर भी निस्तब्ध थे .....
ठान ली पर ‘बीज’ ने
हार न मानेगा वो
साथियों सहित सभी
धरा में वो समा गया
बरखा ने सींचा नेह से
धरा की गोद भर गयी
आंधियाँ फिर-फिर चली
वन मगर डिगे नहीं.....
सत्वचन ये जान लो
मुश्किल नहीं कुछ ठान लो
प्यास हो अगर बड़ी
नीर बहता चाहिए
ओस कितनी चाट लो  
प्यास तो बुझती नहीं |
©विनिता सुराना 'किरण'

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