विद्रोह
पूछते हो तुम
क्यूँ मैं अक्सर रहती हूँ गुमसुम,
कहाँ गयी वो खिलखिलाती हँसी
जो रोके न रुकती थी,
क्यूँ आ जाता है चिडचिडापन
मेरी संक्षिप्त प्रतिक्रियाओं में....
तुम्हारे अनगिनत प्रश्न
जो अब तक हैं अनुत्तरित
आज भी फँसे है मेरे भीतर
तीव्र गति से घूमते
भावनाओं के भँवर में
गतिमान लहरें हैं विद्रोह की
जो छटपटा रहीं है बाहर आने को....
पर डरती हूँ
कहीं वो सैलाब बनकर
बहा न ले जाए
हम दोनों के बीच का
वो आखिरी सेतु
जिसने अब तक जोड़ा है
कच्चे धागों सा
रिश्ता हमारा.
©विनिता सुराना 'किरण'
क्यूँ मैं अक्सर रहती हूँ गुमसुम,
कहाँ गयी वो खिलखिलाती हँसी
जो रोके न रुकती थी,
क्यूँ आ जाता है चिडचिडापन
मेरी संक्षिप्त प्रतिक्रियाओं में....
तुम्हारे अनगिनत प्रश्न
जो अब तक हैं अनुत्तरित
आज भी फँसे है मेरे भीतर
तीव्र गति से घूमते
भावनाओं के भँवर में
गतिमान लहरें हैं विद्रोह की
जो छटपटा रहीं है बाहर आने को....
पर डरती हूँ
कहीं वो सैलाब बनकर
बहा न ले जाए
हम दोनों के बीच का
वो आखिरी सेतु
जिसने अब तक जोड़ा है
कच्चे धागों सा
रिश्ता हमारा.
©विनिता सुराना 'किरण'
Comments