ग़ज़ल



शमा जली थी वो रात भर यूँ, कहीं न कोई भी रौशनी थी
किया हवाले था आशियाना, गिरी वो बन के यु दामिनी थी  

बड़े जतन से लगाए पौधे, न सो सका था वो बागबाँ तब  
खिले थे गुल भी चमन में यूँ तो, मगर न रंगों की रागिनी थी    

किये कभी जो वफ़ा के वादे, हुए न पूरे कभी इरादे
उठी न डोली न सेज महकी, विरह में डूबी वो यामिनी थी  

तपिश वो कैसी न जान पाये , हँसी-हँसी में ही खाक खुशियाँ
समझ मरासिम वो उम्र भर का, क्यु आग दामन में बाँधनी थी

किरण समझ कर भरी हथेली, लगा के दिल से उसे सँभाला
बुझा-बुझा सा समां लगा था, बड़ी ही गुमसुम वो चाँदनी थी  
©विनिता सुराना 'किरण'

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