दृश्य

ये बस्ती है पाषाणों की, ह्रदय हुए बंजर !
मरनासन्न संवेदनाएं, कंटकों के मंजर !

विलुप्त हो रहे क्यूँ निर्मल झरने सद्भाव के,
आहत हो प्रलाप करते सब रंग समभाव के ।

दोष किसका जो उजड़ा ये उपवन हरा-भरा?
ठूंठ हुए वृक्ष, क्यूँ ये पतझड़ असमय झरा?

संबंधों में दिखती दरारें, प्रेम के सोते सूखे,
दरकती दीवारें, ढह न जाए निर्माण जीवन के।

आओ रोपे कुछ बीज नए और सींचें नेह से,
सुवासित हो पुनः उपवन नव कोपलों से।

अद्भुत होगा दृश्य वो , मनोहारी और नयनाभिराम,
खिल उठेगा पुष्प सद्भाव का और पिघलेंगे पाषाण ।
-विनिता सुराना 'किरण'

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