ग़ज़ल

तक़दीर में लिखी न मुहब्बत की आयतें
मिलती नहीं यहाँ पे सभी को है चाहतें



हम पर नज़र तुम्हारी इनायत जो हो गई
मिल जाएगी हमें तो तपिश में भी राहतें

हो मुफलिसी का दौर न पकवान हो कभी
दो कौर भी मिले तो लगे जैसे दावतें

जब सामने थी जीस्त कहाँ जान वो सके
पहचान तब हुई न मिली जब थी मुहलते

हैराँ है लफ्ज़ साथ न दे पाएंगे ‘किरण’
आँखें बयाँ करेंगी लबों की शिकायतें
-विनिता सुराना 'किरण'

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