ग़ज़ल (बचपन)

कड़ी धूप में है झुलसता ये बचपन
न जीता न मरता तड़पता ये बचपन

न थामी कलम और किताबें कभी भी
अँधेरी गली में भटकता ये बचपन

बढे हाथ वहशी उसे नोच लेंगे
यही सोच कर अब सिहरता ये बचपन

खिलौनों से टूटे सभी ख्वाब उसके
कि चाकी में जीवन की पिसता ये बचपन

हथेली में छाले छलकती है आँखें
उठाता है बोझा सुबकता ये बचपन

लकीरें ये कैसी है किस्मत की देखो
निवाले को भी अब तरसता ये बचपन

किया कैद कोमल कली को 'किरण' यूँ
हिना भी डराती सिसकता ये बचपन
-विनिता सुराना 'किरण'

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