ग़ज़ल (7)
गीत अनुराग मैं
अब रचूँ तुम कहो
ख़ार को फूल कैसे
कहूँ तुम कहो
की इबादत उसी की
खुदा की तरह
फूंक दे घर अगर
क्यूँ सहूँ तुम कहो
इंतिहा हो रही
जुर्म की हर तरफ
अब किसे रहनुमा
मान लूँ तुम कहो
अजनबी भी सफ़र में
हसीं जो मिले
मंजिलें क्यूँ न
कुरबां करूँ तुम कहो
साथ देता न कोई ‘किरण’
उम्र भर
दो कदम साथ तो चल
सकूँ तुम कहो
-विनिता सुराना ‘किरण’
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