अदब

कुछ खाली दीवारें
एक छोटी सी खिड़की
बूढ़ी हड्डियों सी
चरमराती चारपाई
एक कोने में एकाकी सी
मुँह चिढाती आधुनिक सभ्यता को
जिसमे कोई स्थान नहीं उस पिता का
जो सेवानिवृत हो चूका.
दामिनी सी गति में चलती
आधुनिक जीवनशैली जहाँ
प्रणाम और नमस्कार पुरातन हो चले
शिष्टता के नाम पर चलन है
हाथ मिलाने और गले लगने का.
अंधे फैशन की दौड़ में पिछड़ते
पारंपरिक वस्त्राभूषण
जिन्हें नकार दिया जाता है
कहकर असुविधाजनक
और सीमित हो जाते है
कुछ त्योहारों तक
जो स्वयं एक रस्म-अदायगी बन गए अब.
आँगन की रंगोली खोने लगी है रंग
क्यूंकि करीने से सजी है
बेशकीमती मूर्तियाँ विदेशी
और कुछ अधनंगी तस्वीरें
लिपिपुती दीवारों पर.
दादी-नानी की कहानियाँ
सिखाती थी सलीका जीने का कभी,
अब बुद्धू-बक्से के धारावाहिकों से
पिछड़ गयी है दौड़ में.
मातृभाषा और संस्कृति
हो गयी धरोहर पुरातन की.
प्रत्येक नयी पीढ़ी के जन्म के साथ
प्राचीन होती एक पीढ़ी और श्ने-श्ने
खोती अपनी पहचान,
नयी पीढ़ी में शामिल होने के
असफल प्रयास में.
टूटने लगी है वर्जनाएं
उन्मुक्त हो चला आकाश
प्रसव-पीड़ा है दर्दनाक
जन्म ले रहा है नया अदब.
-विनिता सुराना 'किरण'

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