नारी स्वतंत्रता और सुरक्षा


नारी स्वतंत्रता - स्वतंत्रता आखिर किस से? अगर यहाँ बात बन्धनों की है तो रिश्तों को ही बंधन समझ लिया जाता है क्योंकि हर रिश्ता निभाने के लिए कहीं न कहीं सामंजस्य की आवश्यकता होती है और ये स्त्री और पुरुष दोनों के लिए आवश्यक है. पुरुष और स्त्री शारीरिक व मानसिक, दोनों ही रूप में एक दूसरे से भिन्न हैं फिर उनकी तुलना करना और बराबरी की बात करना ही निरर्थक हैं. रही बात अधिकारों की तो सबसे बड़ी आवश्यकता तो आत्म-निर्भर होने की है. "आत्म-निर्भरता" से मेरा अभिप्राय मात्र आर्थिक दृष्टि से नहीं, अपितु शारीरिक, मानसिक व आत्मिक .....आर्थिक आत्मनिर्भरता तो आत्मविश्वास दे सकती है ...सुरक्षा नहीं .

खुलापन - समय के साथ समाज तथा सोच में बदलाव आते हैं ....जिस तरह एक वृक्ष एक बीज से बढ़कर विस्तृत रूप लेता है ....परन्तु वह स्थिर और सुदृढ़ अपनी जड़ो से रहता हैं ....उसी तरह विश्व-वैश्वीकरण की वजह से चाहे बढती हुई वैज्ञानिक सुविधाओं की वजह से बहुत से बदलाव होते है परन्तु आवश्यक है हम अपनी जड़ो को न छोड़े ...ये जड़े है हमारे संस्कार और संस्कृति. यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहूंगी कि संस्कार और संस्कृति के नाम पर स्त्री की वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करना किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता . स्त्री और पुरुष दोनों ही आदर के पात्र है.... स्त्री को देवी, माता इत्यादि कहकर उस पर अपेक्षाओं का बोझ डाल देना सर्वथा अनुचित हैं..... यहीं सब गलत हो जाता हैं .... आज से सदियों पहले शायद स्त्री अधिक स्वतंत्र थी क्योंकि उसकी अपनी एक पहचान थी, एक व्यक्ति के रूप में ...एक मर्यादित जीवन में भी उसे चुनने का अधिकार था ....आज स्त्री को देवी, माँ, बहन, पत्नी, प्रेयसी, बेटी कई नाम मिल गए पर कोई नहीं कहता वो एक इंसान हैं ....सम्मान देना अच्छी बात हैं पर इंसान के तौर पर क्यों नहीं ? वह पूजा की नहीं प्रेम की आकांक्षी हैं..... खुलापन वस्त्रों में कितना और किस हद तक हो ये निर्णय स्व-विवेक से होना चाहिए....उसके लिए आवश्यक है कि पुरुष और स्त्री दोनों ही मानसिक और आत्मिक रूप से सुदृढ़ हो . आकर्षण एक सहज अनुभूति है वो विकृति का रूप अधिकतर वर्जनाओं और अधकचरा जानकारी की वजह से लेती है तो शिक्षा का महत्व सर्वाधिक है ....किताबी से अधिक पारिवारिक शिक्षा.

पारिवारिक सरंचना - आज अगर सामजिक पतन हुआ हैं तो निश्चित रूप से हम स्वयं जिम्मेदार है उसके लिए.....दोष देने के लिए हम अंतरजाल, विज्ञापन, फिल्मों में बढती अश्लीलता ..... किसी को भी दे दे , मगर ये मात्र एक खोल है अपने दोष छुपाने का . अगर यही सब कारण है तो क्या वजह है कि आज भी अधिकाँश युवा बलात्कार , दहेज़ जैसी कुरीतियों के खिलाफ न सिर्फ आवाज़ बुलंद करते है बल्कि व्यवहार में भी शालीनता और परिपक्वता का परिचय देते है ....क्या वो नहीं देखते वही विज्ञापन, फ़िल्में और नेट पर फैली गंदगी ? मगर यहाँ उनकी नींव और जड़े अपने संस्कारों में बहुत गहरी है और इसका श्रेय उनके परिवार और पारिवारिक शिक्षा को जाता हैं. समाज सुधार की बाते करने से पहले जरुरत हैं हम अपने ही घर और परिवार से आरम्भ करे ....महज उच्च शिक्षा की और प्रेरित करने की बजाय अपने बच्चों को अच्छी चारित्रिक शिक्षा वो भी व्यवहारिक रूप में देना अनिवार्य आवश्यकता हैं . सर्वप्रथम अपने व्यवहार से आरम्भ करे उसके उपरान्त ही हम अपने बच्चों को प्रेरित कर सकते हैं. अगर बेटा या बेटी परिपक्व सोच लेकर घर से निकले तो मुझे नहीं लगता बाहर फैली गन्दगी उन पर कोई स्थायी असर छोड़ सकती है.
आज स्वतंत्रता का अर्थ निरंकुशता हो गया हैं. जबकि स्वतंत्रता स्व-विवेक से परिभाषित होनी चाहिए ...नारी बाहर काम कर रही है तो वो स्वतंत्र है ...ये गलत सोच है. मनुष्य एक सामजिक प्राणी है तो "निजता" के साथ-साथ आवश्यक है हम समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी समझे.


एक संतुलित और व्यवस्थित विचारधारा की महती आवश्यकता है , जो व्यवहारिक और प्रगतिशील भी हो ... समाज और काल में परिवर्तन के साथ बहुत आवश्यक है हमारी सोच भी प्रगतिशील हो ...जड़ो से जुड़े रहे परन्तु आगे भी बढे.
वस्त्रों का चयन स्व-विवेक से होना चाहिए ...क्यूँ हर समझौता लड़की ही करे ? और मुझे कतई नहीं लगता कि कोई भी सुशिक्षित और संस्कारी युवा इस बात से सहमत होगा कि लडकियों को सिर्फ सलवार कमीज़ या साड़ी ही पहननी चाहिए ..ये एक स्वाभाविक अधिकार है प्रत्येक व्यक्ति का ...फैशन ही नहीं आज की जरुरत है कुछ परिधान ...तेज़ भागती ज़िन्दगी में सहज परिधान अधिक उपयुक्त लगते है ...हां सिर्फ फैशन के लिए नग्नता को स्वीकार करना अनुचित है .

 सदियों से चली आ रही इस प्रथा से कि नारी को देवी या बच्चियों को कन्या कह कर पूजा जाए, मैं सहमत नहीं हूँ  ....क्षमा चाहूंगी अगर कोई इस बात से असहमत हो, परन्तु आज रीति रिवाजो और धर्म के नाम पर मात्र खानापूर्ति होती है ...ये रिवाज ये रीतियाँ और इनका औचित्य धूमिल से हो गए है . एक दिन के लिए सम्मान और उसके बाद तिरस्कार ...ये मेरे विचार में चर्चा का विषय होना चाहिए .....किसी धर्म या परंपरा के खिलाफ नहीं हूँ मैं परन्तु उन्हें व्यवहार में लाना चाहिए न कि महज़ एक रस्म अदायगी ...
 मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचे तो किशोरावस्था और युवावस्था में अज्ञात के प्रति जिज्ञासा उठाना इक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसका उचित समाधान घर और परिवार में न होने पर बच्चे इन अधकचरा साधनों की तरफ रुख करते है ...यही पर परिवार की भूमिका का महत्व है ...आज भी माता पिता इस बारे में सहज नहीं हो पाते ज्यादातर परिवारों में. इसीलिए ये हश्र हो रहा है... ads और films आती है तो channel बदल जाते है ... बच्चे जिज्ञासा रखे तो टाल देते है ...यहीं पर आवश्यकता है एक प्रगतिशील सोच की !
प्रत्येक व्यक्ति के लिए ये अनिवार्य आवश्यकता है कि कुछ समय स्वयं के साथ आत्म-चिंतन में...और कुछ समय बच्चों और परिवार के साथ बिताये ...परस्पर संवाद खासकर किशोर व युवा बेटे बेटी के साथ ! थोडा हमें उनकी तरफ झुकना होगा ताकि उनकी परिस्थितियों को समझ सके

कहीं न कहीं मुझे लगता है आज समाज की यानी हम सभी की स्थिति उस पक्षी की तरह हो गयी है जिसे एक लम्बे समय तक एक सीमित जगह पर रखा गया और फिर अचानक जंगल में छोड़ दिया ....जितनी तेजी से तकनीक विकसित हुई उतनी तेजी से शायद हम अपने कदम नहीं मिला पाए यही कारण है कि पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण होने लगा ...यही से युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित होती गयी ...सही शब्दों में जाग्रति की आवश्यकता हैं. इन संसाधनों के जंगल में खो रहे है संस्कार और जहाँ माता पिता आगे नहीं आ रहे वहाँ दूरियाँ बढ़ रही है पीढियों के बीच .

 अपनी शादी से पहले एक Non-conventional शिक्षा प्रणाली का हिस्सा रही हूँ मैं ...दो वर्ष जी तोड़ मेहनत की मगर अंत में बच्चो के अभिभावक ही ये कहने लगे कि आपके व्यवहारिक ज्ञान के चक्कर में हमारे बच्चे शिक्षा में पिछड़ जायेंगे असल जाग्रति तो विचारों में आवश्यक है ...किताबी शिक्षा एक व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कैसे कर सकती है ? योगा और शारीरिक व्यायाम साथ ही जुडो-कराटे आदि शिक्षा का अभिन्न हिस्सा होने चाहिए ... वैसे कुछ अच्छे विद्यालयों में शुरुआत हुई है मगर वो कितने परिवारों की पहुँच में है , ये बताने की आवश्यकता नहीं है मैं अब विराम लेती हूँ .. पुनः भेंट होगी ! 
-विनिता सुराना 'किरण'


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