ग़ज़ल (2)






सुनो साथी हवा क्या गुनगुनाए
फिज़ा भी साथ में जब सुर लगाए.

पपीहे ने पुकारा है, कहाँ हो
चले आओ कि बूंदें भी जलाए  

कटे दिन बेकरारी में अभी तक  
कि अब तो चाँदनी भी है सताए.

लगे फीकी रंगोली चौक में अब
रंगों के कौन अब मेले सजाए.

उठे है हूक सी दिल में कभी तो
विरह के गीत जब कोयल सुनाए.

लगाया डाल पर झूला सखी ने
सभी झूले, मगर मुझको न भाए.

नहीं अब बहलता मन, ज़िक्र से भी
नहीं तुम साथ तो सब है पराए.

-विनिता सुराना 'किरण'

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