अतीत




यह कैसी ख़ामोशी,
आ बैठी है तेरे मेरे दरमियान?
रुसवा है शायद खुद से ही,
सताती है बहुत.
अबूझ पहेली सी लगती हैं,
उलझाती है बहुत.
ख़्वाबों से बोझिल
हो चली है पलकें अब मेरी,
न वो जाते है,
न नींद मुझे आती है.
अतीत से कुछ
धुंधली सी परछाइयाँ चली आती है.
कुछ अनकहे किस्से हैं
कोशिश करती हूँ डायरी में लिखने की.
जाने कहाँ लफ्ज़ हो जाते हैं गुम
और रह जाती हैं
बस कुछ टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें.
कभी एक धुंधली सी आकृति उभर आती है,
अपनी सी लगती हैं
पर पहचान नहीं पाती
और खो जाती हूँ
खामोशी के अंधेरों में
जो लम्बी सुरंग की तरह गहराते ही जाते हैं.
सुनहरे अतीत की
रोशन यादें भी नहीं चीर पाती
इन अंधेरों को
और लौट जाती है वे भी
लुटी-पिटी सी
मेरी डायरी के महकते पन्नों में
जहाँ कैद है
भीनी सी खुशबू
मेरे अतीत की.
-विनिता सुराना 'किरण'

 


 


 


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