माटी (मुक्तक)




संत-वाणी बहु सुनी, पर ग्राही नहीं
कोपल मनमोहक खिली, सराही नहीं
माटी हुआ तन, माटी में हुआ लीन
सम्पदा बहुरि जोड़ी, कछु लाही नहीं.
-विनिता सुराना 'किरण'

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