मेरे परदेसी



गुड्डे-गुड्डी का ब्याह रचाते सखियों संग
ना जाने कब रंग गयी मैं तुम्हारे रंग
तुम्हारे नाम की मेहंदी जो रची हथेली में
तो नए से लगने लगे जीवन के रंग.

अग्नि की साक्षी में जुड़ा था रिश्ता हमारा
नया था सफ़र और दूर था बहुत किनारा
नासमझ मैं कहाँ समझी थी तब 'विनि'
कि मझधार में यूँ साथ छोड़ देगी धारा.

वो रात सुहानी यूँ पलक झपकते बीती
ना सुन पायी तुम्हारी, ना कही आपबीती
भोर की पहली किरण विछोह का संदेसा लायी
तुम चले गए परदेस, मैं रह गयी रीती.

आज भी हर पल सुलगती हूँ अंगीठी सी
और प्रीत मेरी तपती हैं, तवे पर रोटी सी
पलक झपकती नहीं इस डर से, कही तुम आओ
और मैं ख्वाबों में खोयी, रह जाऊं सोती सी.

- विनिता सुराना

Comments

Popular posts from this blog

लाल जोड़ा (कहानी)

एक मुलाक़ात रंगों से

कहानी (मुक्तक)