सवाल

वो मासूम चेहरा, वो नम आँखें
आज भी सवाल करती
हैं.
“क्या खता थी मेरी, क्यूँ सज़ा मुझे मिली?
कोमल कली थी किसी
बगिया की, फिर क्यूँ न खिली?
डोली उठी थी कल, आज अर्थी पर मैं चली.
परिवार की ख़ुशी
के लिए, चढ़ा दी गयी बलि.
जिसने काटी थी
जीवन डोर, कंधा भी उसी ने दिया.
जिस्म की पीड़ा
असीम थी, आत्मा को भी रुला दिया.”
वो दर्द से
कराहते होंठ, वो बेबस नज़रें
आज भी सवाल करती
है.
“क्यूँ दर्द मेरा अजनबी हो गया?
हरे-लाल पत्तों
के ढेर में खो गया?
चीख़े मेरी बंद
दरवाजों में घुट गयीं.
जाम पर जाम जो
छलके आत्मा मेरी लुट गयी.
चंद आंसू मेरी
अर्थी पर बहाकर रस्म अदा हो गयी.
गैरों से क्या
शिकवा करें ‘किरण’
तन से अपने सींचा
जिसने, वो जननी ही बदल गयी.”
-विनिता सुराना ‘किरण’
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-vinita surana.