वक़्त गुज़रता गया, कभी नहीं रुका, तब भी नहीं जब हम अलग हो रहे थे, तब भी नहीं जब तुझे आख़िरी बार गले लगा कर , बिना पीछे मुड़े मैं आगे बढ़ गयी थी, अगर पीछे मुड़ कर तेरी आँखों में देख लिया होता तो जा नहीं पाती न ! पर क्या वाकई हम अलग हो पाए, वो जो लम्हे अब भी कहीं ज़िंदा हैं, कुछ तेरी संजो कर रखी तस्वीरों में, कुछ हमारी याददाश्त में, वो लम्हे हमें जुदा कहाँ होने देते हैं? हम तो मौजूद हैं एक दूसरे की धड़कनों में, ये दूरियां, ये दुनिया, ये मजबूरियां कैसे अलग कर पाएंगी हमें ? जीते जी भी नहीं और उसके बाद भी नहीं क्योंकि हम फिर लौटेंगे पूरी करने को 'हमारी अधूरी कहानी' ! हाँ वही कहानी जिसकी शुरुआत कहीं हमारे तसव्वुर में न जाने कबसे थी, तेरे उस सुबह के ख़्वाब में, जब मैं लाल-पीली बॉर्डर वाली साड़ी में तुझे जगाने आती थी, तेरे न उठने पर तेरी उँगली को गरम चाय में डुबो देती थी और तू जाग कर मुझे खोजने लगता था अपने आस-पास ... मेरे ख़्वाब भी तो बेचैन किया करते थे मुझे जब उस पहचाने से स्पर्श को अपनी रूह तक महसूस किया करती थी, बिना ये जाने कि मैं कब म...