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देसी टॉम क्रूज़ !

"तुझे पता है,,,, आज लाइब्रेरी में कौन दिखा मुझे ?" "नहीं पता तो नहीं है ...पर तू बता ही देगी, वरना तेरा पेट दर्द नहीं हो जाएगा... हाहाहा" "हाँ यार सच्ची !!! आज यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी गयी थी एक ...

आगे वाली सीट

अपने स्टॉप से आज फिर बस में चढ़ते ही निगाह सीधे आगे की सीट पर पड़ी । वह आज भी वही बैठा हुआ था पहली सीट पर खिड़की के पास वाली ... ये भी जानती थी बस 3 स्टॉप और फिर उसी सीट पर कोई और बैठी होगी, ...

चोरी-चुपके

अरसे पहले ज़मींदारी समाप्त हुई तो बिरजू को भी एक छोटा टुकड़ा ज़मीन का मिला, पर बंजर, ऊपर से पानी का कोई स्रोत नहीं । वर्षों की अथक मेहनत और सरकारी सहायता से कुछ संसाधन जुटा कर खेत...

नाकाम कोशिश

वक़्त करता रहा कोशिश उम्र की तहों में दबाने की, मगर ज़िद्दी यादें आकर हर रात खुरचती रहीं थोड़ा-थोड़ा, जाने कब कटने लगी तहें और बाहर सरक आये कुछ जबरन दबाए गए 'अहसास' ... रुक जा कुछ देर त...

इत्तेफाक़ !

"अरे तुम यहाँ ! इस समय ?" "तुम सवाल बहुत करती हो , चलो अब बैठो बाइक पर.." "हम्म, ठीक है पर तुम इस समय कैसे, ये तो बताओ... तुम तो लंच के लिए 2 बजे जाते हो घर और अभी तो 4 बजे है, आज देर कैसे हो गयी ?" "हाँ आ...

प्यार

वो जो कहते हैं प्यार नहीं दिखता आज नज़र बदलो नज़रिया बदलो विस्तृत है आसमाँ प्यार का कोई बादल का टुकड़ा नहीं पूरी आकाशगंगा है कोई ध्रुव तारा नहीं ... दूरबीन को हटाओ बस मन की आँखें ...

पहली कविता

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आड़ी-तिरछी रेखाओं के जोड़-तोड़ से गढ़ रही थी कुछ आकृतियों जैसी.... फिर टीचर ने कहा , “देखो कितने सुंदर होते हैं अक्षर बस थोडी और गोलाई दो इस रेखा को थोडा सीधा कर दो शाबाश ! देखो कितना सुन्दर लिखा तुमने ..” वो एक प्यार की , हौसले की थपकी और जाने कब अक्षर जुड़ने लगे शब्द सँवरने लगे ... पर मन कहाँ बंधता उन लाइनों वाले कागजों में तो कभी रंगी-पुती दीवार पर कभी दरवाजों के पीछे , कभी मेज की चिकनी सतह पर,  कभी सीमेंट के खुरदुरे फ़र्श पर, कभी थाली में छूट गयी पानी की बूंदों में, कभी कच्चे आँगन की मिट्टी में उभरने लगे ...शब्द फिर एक दिन रफ़्तार ली शब्दों ने और बहने लगे अनछुए अहसास , कच्ची नींद के ख्वाब , मन में दबी ख्वाहिशें , अपने-आप से कही ढेरों बातें ... “अरे तुम तो कविता लिखती हो !” “अच्छा ! क्या ये सचमुच कविता है ? पर मुझे तो आता ही नहीं कविता लिखना , बस यूँ ही जो कुछ कहना चाहती हूँ , कह देती हूँ इन खाली पन्नों से और इससे पहले कि कोई और देखे , झट से छुपा देती हूँ इन स्कूल की कापियों से फाड़े  टेढ़े-मेढ़े फटे पन्नों को” ...