पहली कविता


आड़ी-तिरछी रेखाओं के जोड़-तोड़ से
गढ़ रही थी कुछ आकृतियों जैसी....
फिर टीचर ने कहा,
“देखो कितने सुंदर होते हैं अक्षर
बस थोडी और गोलाई दो
इस रेखा को थोडा सीधा कर दो
शाबाश ! देखो कितना सुन्दर लिखा तुमने ..”
वो एक प्यार की, हौसले की थपकी
और जाने कब अक्षर जुड़ने लगे
शब्द सँवरने लगे ...
पर मन कहाँ बंधता उन लाइनों वाले कागजों में
तो कभी रंगी-पुती दीवार पर
कभी दरवाजों के पीछे,
कभी मेज की चिकनी सतह पर, 
कभी सीमेंट के खुरदुरे फ़र्श पर,
कभी थाली में छूट गयी पानी की बूंदों में,
कभी कच्चे आँगन की मिट्टी में
उभरने लगे ...शब्द
फिर एक दिन रफ़्तार ली शब्दों ने और बहने लगे
अनछुए अहसास,
कच्ची नींद के ख्वाब,
मन में दबी ख्वाहिशें,
अपने-आप से कही ढेरों बातें ...
“अरे तुम तो कविता लिखती हो !”
“अच्छा ! क्या ये सचमुच कविता है ?
पर मुझे तो आता ही नहीं कविता लिखना,
बस यूँ ही जो कुछ कहना चाहती हूँ,
कह देती हूँ इन खाली पन्नों से
और इससे पहले कि कोई और देखे,
झट से छुपा देती हूँ
इन स्कूल की कापियों से फाड़े 
टेढ़े-मेढ़े फटे पन्नों को”


(यूँ ही कभी लिखी थी शायद पहली कविता)

©विनीता सुराना किरण 

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