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एक पाती 'स्त्री' की 'पुरुष' के नाम

क्या कहकर संबोधित करूँ तुम्हें? इतने रूपों में देखती हूँ कि अब तक तय नहीं कर पायी कौन सा रूप अधिक प्रिय है तुम्हारा .... वो दर्पण हो तुम मेरा जिसने मुझे मेरे रूप से मिलवाया, जाने ...

सफ़र - आँखों से रूह तक

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हाँ देखती तो हूँ तुम्हें हर दिन, पर मेरी आँखों का सफ़र इतना छोटा नहीं कि रुक जाए ... तुम्हारे गंभीरता ओढ़े चेहरे पर कंजूसी से मुस्कुराते होंठों पर, ख़ामोश और उदास आँखों पर, जिनकी च...

एक मुलाक़ात रंगों से

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आज होली है न ! आओ चलो कुछ क़दम मेरे साथ तुम्हें मिलवाना है आज उन सारे रंगों से जो घुले हैं मुझमें.... थोडा सा जामुनी मेरी पलकों की दहलीज़ पर ठहरे उन अनदेखे ख़्वाबों का, जिन्हें अब भी ...

अज़नबी

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अज़नबी है फिर भी तुझसे राब्ता क्यूँ है। गर मुहब्बत ही नहीं तो वास्ता क्यूँ है। अक़्स अपना ही दिखाई अब नहीं देता, आइना भी बस तुझे पहचानता क्यूँ है। ©विनीता सुराना 'किरण'

करवट

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ख़ुश्क सा एहसास  मीठी सी प्यास बोझिल पलकें बेचैन ख़्वाब ये नज़दीकियां फिर भी दूरियां सदियों सी पहचान थोडा सा अनजान अज़ब सी कश्मकश मन के तारों में जुड़ने न जुड़ने का अनिश्चय आह...

एहसास

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क्यूँ मुस्कराते हो यूँ हौले-हौले ? बिखरने लगती है चाँदनी, लिपटने लगती है मुझसे, तुम्हारी नज़रों की छुअन  सिहरन सी देती है। जब यूँ मुहब्बत से देखते हो, तन्हाई में जाने कितने सुर जी उठते हैं.. अक़्सर कहती हूँ तुमसे खुल कर मुस्कराते नहीं पर अब समझी मुस्कुराती तो आँखें हैं लब तो बस भेजते हैं सन्देश और फ़िर उलझ जाती हूँ तुम्हारी नज़र की सरगोशियों में, गज़ब की कशिश बाँध लिया करती है मुझे.. कितने ही अनकहे सवाल अनसुने ज़वाब पर मन बस डूबता-उतरता है मीठे से एहसास में हाँ तुम्हारे क़रीब बहुत क़रीब होने के एहसास में .... ©विनीता सुराना 'किरण'

फ़िर मिलेंगे

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कितना कुछ कहने का मन हुआ तुमसे पर कह नहीं पायी,  जाने क्यूँ ? तुमने तो पन्ने भी फड़फड़ाये, शायद मेरी बेचैनी को  महसूस किया तुमने, तुमसे बेहतर कौन समझ सकता है मुझे? तुम सबसे पहली सखी जो हो जिसने जाने कितने लम्हें जीये हैं मेरे साथ कितनी यादें दफ़्न हैं तुम्हारे पन्नों में मेरी खिलखिलाहटें भी मेरे अश्क़ भी वो अलसभोर के ख़्वाब भी वो हर शब के साथ बिखरी ख़्वाहिशें भी कुछ भीगे लफ़्ज़ कुछ गहरे एहसास डूबते सूरज की तन्हाई भी सुरमयी शाम के रंग भी सब कुछ तो साझा किया तुमसे... पर आज तुम भी परायी सी लगी या शायद मैं ही दूर हूँ ख़ुद से ख़ामोशी है पर सुकून नहीं लफ़्ज़ बेचैन हैं बाहर आने को पर क़लम है कि साथ नहीं देती ... जाने दो आज कुछ नहीं कहना तुमसे फिर मिलेंगे कभी ! ©विनीता सुराना 'किरण'