एक पाती 'स्त्री' की 'पुरुष' के नाम

क्या कहकर संबोधित करूँ तुम्हें?
इतने रूपों में देखती हूँ
कि अब तक तय नहीं कर पायी
कौन सा रूप अधिक प्रिय है तुम्हारा ....

वो दर्पण हो तुम मेरा
जिसने मुझे मेरे रूप से मिलवाया,
जाने कैसा सम्मोहन था
तुम्हारी आँखों में,
भेदती गयी मुझे भीतर तक
और जब इनमें
अपनी प्रशंसा देखी,
तो स्वयं पर गर्व करने लगी....
तुम्हारी उन्मुक्त प्रशंसा
भिगो देती है मन
पिघलने लगती हूँ मैं
तुम्हारी प्रीत की आँच में
कोई दर्द , कोई टीस हो
बस हल्क़े से छू कर गुज़र जाती है
जब तुम्हारी बाहों का घेरा
कवच बन जाता है...

वो चित्रकार हो तुम,
जिसने मेरी श्वेत-श्याम सी रंगत को
सजीले रंग दिए,
तुम्हारी कूची ने कभी
हौले से सहलाया
तो कभी रंग डाला इस कदर
कि स्वयं को विस्मृत कर बैठी,
पर हर हाल में मैं निखरती गयी...
तुम उकेरते रहे मुझे
अपने स्नेहिल स्पर्श से,
हाँ तब लगा मोहक हूँ मैं
जादू है मुझमें
तुम्हारे रंगों के साथ
बहती रही
घुलती रही
तब लगा
संसार की सबसे सुन्दर कृति हूँ मैं !

वो गायक, वो संगीतकार हो तुम,
जिसने शब्दों में ढाला मेरा रंग-रूप,
सुरों से संवारा मेरा जीवन,
तुम्हारी ताल ने,
हर एक थाप ने,
थिरकन दी मेरे क़दमों को,
पंख दिए मेरे सपनों को,
तुम्हारे गीतों में ढलती रही,
सुरों में संवरती रही...
कभी बांसुरी का प्रेम गीत,
कभी वीणा सा अलौकिक संगीत
नश्वर से अमर हो गयी मैं !

सोचती हूँ क्या कभी
मैं भी तुम्हारी खूबियों को
शब्द दे पाऊँगी,
मेरे होंठ के ऊपर
एक छोटा सा तिल भी
तुम्हारी नज़र से नहीं बचा,
पर क्या तुम्हें, तुम्हारे प्रेम को
शब्दों में समेट पाऊँगी?
नहीं मेरा शब्द-कोष अब भी सीमित है शायद !
©विनीता सुराना 'किरण'






Comments

Popular posts from this blog

Happiness

Chap 28 HIS RETURN…..

Kahte hai….