फ़िर मिलेंगे

कितना कुछ कहने का मन हुआ तुमसे
पर कह नहीं पायी, 
जाने क्यूँ ?
तुमने तो पन्ने भी फड़फड़ाये,
शायद मेरी बेचैनी को 
महसूस किया तुमने,
तुमसे बेहतर कौन समझ सकता है मुझे?
तुम सबसे पहली सखी जो हो
जिसने जाने कितने लम्हें जीये हैं मेरे साथ
कितनी यादें दफ़्न हैं तुम्हारे पन्नों में
मेरी खिलखिलाहटें भी
मेरे अश्क़ भी
वो अलसभोर के ख़्वाब भी
वो हर शब के साथ बिखरी ख़्वाहिशें भी
कुछ भीगे लफ़्ज़
कुछ गहरे एहसास
डूबते सूरज की तन्हाई भी
सुरमयी शाम के रंग भी
सब कुछ तो साझा किया तुमसे...
पर आज तुम भी परायी सी लगी
या शायद मैं ही दूर हूँ ख़ुद से
ख़ामोशी है पर सुकून नहीं
लफ़्ज़ बेचैन हैं बाहर आने को
पर क़लम है कि साथ नहीं देती ...
जाने दो आज कुछ नहीं कहना तुमसे
फिर मिलेंगे कभी !
©विनीता सुराना 'किरण'

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