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Showing posts from October, 2018

कल्पना

जाने कितने फ़ासले तय करती है कल्पना , कुदरत से जन्मी ,कुदरत में ही मुक़म्मल होने के इंतज़ार में... बिखरते हैं, सिमटते हैं, निखरते हैं लम्हे कल्पना की परिधि में  मगर तल्ख़ हक़ीक़त अक्स...

तुमसे ही ...

अब जाने क्यों हैरत नहीं होती तुम्हारी किसी बात पर ऐसा लगता है जैसे सब कुछ तयशुदा ही हो रहा तुम सब वही तो करते हो, कहते हो जो मुझे लगता था तुम करोगे, कहोगे। मेरे अल्फ़ाज़ और उनमें ...

निरंतर

उम्र का ये अजीब दौर है ! जिम्मेदारियों की तल्ख़ धूप भी तो तन्हाई में पसरी परछाइयाँ भी... अपने लिए छांव का एक टुकड़ा तलाशती, जलती हुई पगथलियां, शाम ढलने तक भूल जाती है तपिश... रात और न...