गंगा मैया

शाम के धुंधलके में दूर बालकनी से लक्ष्मण झूले को रोशनी में नहाए देखना अद्भुत अनुभव था । मंद-मंद बहती हवा और गंगा की लहरों पर नृत्य करती रोशनी सम्मोहित कर रही थी और दे रही थी मौन निमंत्रण मानो कह रही हो, "चली आओ कि आज उत्सव है प्रेम का !" हाँ प्रेम ही तो पुकार रहा था ...ऋषिकेश से प्रेम, गंगा से प्रेम, नदी से प्रेम, कहीं वेग तो कहीं मदमाती जलधारा से प्रेम, कुदरत की हर उस शै से प्रेम जो दिल को सुकून देती है । वह सुकून जो मानव निर्मित शायद ही कोई वस्तु या कृति दे पाती है , वह चारदीवारी भी नहीं जिसे घर कहते हैं । अंततः घर भी एक सीमा में बांधता है , बस कुदरत ही है जो आज़ाद कर देती है, पर हमने जाने कितने बंधनों में बांधना जारी रखा है उसी कुदरत को ... कहीं पहाड़ों की छाती काटकर रास्ते बना दिये तो कहीं नदियों का वेग रोक कर बांध, निर्मल पहाड़ी झरनों को भी कहीं न कहीं गिरफ्त में ले ही लिया (कभी मसूरी का उन्मुक्त कैम्पटी फॉल इस बार एक झरने से कुंड बन कर अपनी दुर्दशा पर आंसू बहाता प्रतीत हुआ ) अपने ख्यालों की बेचैनी से निजात पाने क़दम गंगा की ओर बढ़ चले थे, लक्ष्मण झूले को पार कर दूसरी तरफ पहुंचे कि संगीत की धुन ने स्वागत किया। कैफ़े में बजता धीमा संगीत, नज़दीक से उतरती सीढियां और हवा के परों पर अपने करीब आने का आमंत्रण देती गंगा । गंगा का आमंत्रण हमारे लिए ही नहीं था, वहाँ तो जाने कितने थके मुसाफ़िर सुकून की तलाश में मौजूद थे। कहीं कोई झुंड रूमानी गीत गाने-बजाने में मग्न तो एक ओर दीप नृत्य से अपनी कला का प्रदर्शन करती नृत्यांगना विदेशी धुन पर थिरकती हुई तो कहीं कोई गंगा की गोद में बैठा अपनी ही धुन में खोया हुआ। सबसे खास बात ये कि कोई किसी के साथ नहीं मगर कोई अकेला भी नहीं ... तन्हाई थी, सुकून भी मगर अकेलापन नहीं क्योंकि उस घड़ी हर कोई ख़ुद अपने साथ था, अपने पास था । रात गुज़रती रही आहिस्ता-आहिस्ता और अर्ध-रात्रि बाद जब क़दम लौट रहे थे होटल की ओर, मन वहीं छूट गया था गंगा किनारे और सुबह तक उसे सहलाती रही, दुलारती रही अपनी मखमली लहरों से गंगा माँ ….

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