एक चिट्ठी माँ के नाम
माँ,
आज न आपका जन्मदिन है, न पुण्यतिथि, न ही मातृ दिवस, आपकी याद यूँ भी किसी विशेष दिन की मोहताज नहीं ... मेरे मन के पन्नों पर जाने कितनी अप्रेषित चिट्ठियां लिखी हैं आपके नाम की पर आज शब्दों ने जैसे बगावत की ठानी है और क़लम की स्याही ने उनका साथ देने की ...
कहते है न मूल से ब्याज़ ज्यादा प्यारा होता है पर आप तो नानी नहीं माँ ही बनी रहीं ताउम्र मेरे लिए। मेरी जन्मदात्री न होते हुए भी 'माँ' शब्द को सम्पूर्ण मायने दिए आपने और विरासत में मुझे अपनी स्मृतियों का अकूत खज़ाना दे गयीं । कभी घर के कोने-कोने में बिखरी रहने वाली आपकी ख़ुशबू भले ही मिटा दी इस बेरहम वक़्त ने, आपकी निशानियां भी धीरे-धीरे जीवन की आपाधापी में खो गयीं पर जो छोटी-छोटी पर अमिट छाप आपने मेरे जीवन में अपने दिए संस्कारों से रोप दी वो कभी धूमिल नहीं हो सकती ।
आज बरबस ही वो दिन याद आ रहा है जब दर्द, तक़लीफ़ और अपनी एक-एक सांस से झूझती आपकी आंखों में कहीं एक रेशा भी मृत्यु का डर नहीं था, बस थी तो अपनी वंशबेल के लिए फ़िक़्र, जो गैरवाजिब भी नहीं थी क्योंकि हम सभी आप पर, आपकी ममता पर आश्रित जो रहे हमेशा .. गहन पीड़ा में भी हताशा नहीं, जीने की जीजिविषा दिखा करती थी आप में पर इस बार जैसे आपने खुद को मानसिक रूप से अनंत सफर के लिए तैयार कर लिया था।
अस्पताल के पलंग पर मैं आपका हाथ थामे आपकी बंद आंखों की निरंतर धीमी पड़ती हरकत में आपको क्षण-क्षण दूर जाते हुए देख रही थी और ये बावरा मन माजी की खट्टी-मीठी यादों से रूबरू हो रहा था ... जैसे सिनेमा की रील चल रही हो और एक-एक दृश्य जीवंत होने लगा । यदा-कदा आपके ही दोहराये किस्सों से और अपनी धुंधली यादों से अपने बचपन को जाना था, वो बचपन जो आपके आँचल की छांव में जीया, सीमित साधनों में भी बेहतरीन परवरिश और माँ से बढ़कर माँ के किरदार में आपको पाकर खिलता रहा मेरा बचपन। खूब हँसती हूँ आज भी जब अपनी अल्हड़ बातें याद आती हैं, वो दीवारों और दरवाजों पर चाक लेकर मेरा टीचर के किरदार में उतर जाना और आपका तन्मयता से पढ़ने का अभिनय, फिर ज़रा भी कोताही होने पर मेरा गुस्से में कहना, "नहीं पढ़ना तो मेरा क्या रहो थोट (अनपढ़)!" याद है अब भी मेरी आधी रात की भूख में बिना किसी झल्लाहट के चूल्हे की मंद पड़ती आंच या स्टोव में हलवा बना कर मुझे लाड़ से खिलाना (दूध न रख पाने का विकल्प यही तो था तब), नए कपड़े खरीदने में हाथ तंग होने के बावजूद कटपीस के कपड़ों से मेरे लिए नित नए फ्रॉक बनाना, स्कूल-कॉलेज जाने पर मेरे जेबख़र्च के लिए मना करने पर भी चुपके से कुछ सिक्के मेरी जेब में रख देना, जाने कहाँ से बचा लिया करती थीं आप अपने अति सीमित घर-खर्च में से ? रघुनाथ हलवाई से 1रुपये के 3 पेड़े, और चाय वाले के यहाँ से एक प्लेट मलाई अक्सर मेरे लिए रखे मिल जाते स्कूल से लौटने पर जैसे मेरे मन की बात आप तक टेलीपैथी से पहुंच गई हो।
मेरे ब्याह की तैयारियों से लेकर मेरी पहली जचगी तक सभी जिम्मेदारियों को अपनी बढ़ती उम्र और निरंतर गिरती सेहत के बावजूद आपने जिस तरह सहर्ष उठाया, वो सारी यादें न जाने कितनी बार नम कर देती हैं मेरी आँखों को । मेरी प्रसव पीड़ा का असहनीय दर्द और मेरी पहली संतान की असीमित खुशी, दोनों देखा था आपकी आंखों में, आपका स्नेहिल स्पर्श ही तो एक मात्र सुकून था उस डेढ़ दिन के कठिन सफ़र में मेरा !
आपकी निष्प्राण देह पंचतत्त्व में भले ही विलीन हो गयी पर आप आज भी मेरे साथ हैं, मेरे आसपास हैं, मेरे सपनों की रंगत में, मेरी लेखनी की खुशबू में और सबसे बढ़कर मेरी पहचान में जो आपके ही नाम 'किरण' से है । बस यूं ही मेरे साथ रहना माँ ❤️
आपकी 'किरण'
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