तपिश
भीषण तपन के बाद आने वाली हल्की फुहारें अक़्सर राहत कम, बेचैनी अधिक छोड़ जाती हैं, शायद उकसाती हैं भीतर की उस तपन को जो जाने कब से ज़ब्त थी भीतर के गर्भ-गृह में ...हाँ जाने क्या नाम देते हैं लोग पर मैं तो गर्भ-गृह ही कहती हूँ । जानते हो जब तपिश ज्यादा हो तो सहने और जज़्ब करने की शक्ति बढ़ती जाती है पर एक बार जो हल्की सी राहत भी मिले तो जैसे धैर्य चूकने लगता है ...
सहरा सी ज़िन्दगी में एक शज़र ... हाँ ऐसा ही कुछ एहसास लाये तुम और अब घड़ी भर की भी तन्हाई जाने कितने शूलों की चुभन देती है जबकि इसी तन्हाई में जन्मीं थी कभी मेरी श्रेष्ठ कविताएं ... तब मेरे भीतर तपते एहसास रंग दिया करते थे शब्दों को और डायरी के कोरे पन्ने खिलखिला उठते थे । अपने भीतर की तपिश कभी इस शिद्दत से महसूस कहाँ की थी ... तब तक इन बूंदों की ठंडक का एहसास जो नहीं था।
#सुन_रहे_हो_न_तुम
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