धरणी ( कहानी) भाग 2
दो दिन रुक कर मदन और सुरभि शहर लौट गएँ। घर में सब यथावत चलने लगा, बस धरणी का जीवन सूना हो गया था। मदन के साथ न रहने पर भी उसकी प्रतीक्षा रहती थी और मन में एक आस और कुछ सपने , अब वे भी सब साथ छोड़ गए । एक कागज़ पर उसके अँगूठे ने सब छीन लिया था धरणी से। मदन अपने वायदे के अनुसार हर माह मनीऑर्डर भेजता रहा और साल में दो-तीन बार मिलने भी आया। घर में रौनक हो जाती दो दिन के लिए, बस धरणी अपनी बच्चियों और सास-ससुर को खुश देख स्वयं भी खुश हो लेती। फिर एक बार जब मदन आया तो बेहद खुश दिखा और शहर से मिठाई भी लाया था, एक बेटे का बाप जो बन गया था।
उस दिन की ख़ुशी जैसे उस घर की खुशियों को ग्रहण लगा गयी, बेटे की ख़ुशी में ऐसा खोया मदन कि माँ-बाप, बेटियों को भी भूल गया जैसे, धरणी का अस्तित्व तो बहुत पहले ही मिट चुका था उसके जीवन से । हाँ मनीऑर्डर हमेशा आता रहा पर मदन व्यस्तता के बहाने हर बार गाँव आना टाल देता।
दो साल गुजर गए, सास ससुर और बेटियों में खोयी धरणी ने अपनी सुध लेना छोड़ ही दिया था। फिर एक दिन जब धरणी शाम को खेतों से लौट रही थी तो बड़ी बेटी रश्मि को बदहवास सी अपनी और दौड़कर आते देख घबरा गयी। उसकी फूली हुई सांस के बीच बस "माँ ... दादी.." ही सुन पायी धरणी और दौड़ पड़ी घर की ओर। घर के आँगन के बीचों-बीच चादर लपेटे चिर निद्रा में सोई थी उसकी सासु माँ, और धरणी बस पत्थर की मूरत बनी अपने सर से एक और माँ का आँचल सरकते देख रही थी। दो वर्ष पहले जब अपनी माँ को खोया था तब भी ऐसा धक्का न लगा था जैसा उस दिन लगा । रात तक मदन भी आ पहुँचा, अगले तीन दिन कैसे गुज़रे धरणी समझ ही न पायी, न रोई, न कुछ बोली, बस शून्य में ताकती रही, उसका हौसला ही टूट गया था जैसे, क्योंकि अम्मा ही थी जिसने मदन के दूर हो जाने के बाद उसका साथ दिया था हमेशा। चौथे दिन मदन शहर लौट गया, तेरहवीं के दिन वापस आने की बात कहकर, सब रिश्तेदार और गाँव वाले भी अपने-अपने कामों में लग गए, तब जाकर धरणी को महसूस हुआ घर का खालीपन और अम्मा की तस्वीर को छाती से लगाकर फूट-फूट कर रोई ।
अम्मा को गए सवा महीना ही हुआ था और घर में ब्राह्मण-भोज चल रहा था कि अचानक बाहर शोर सुनकर धरणी चौखट तक गयी तो देखा गाँव के कुछ बड़े-बूढ़े एकत्रित होकर उसी के घर की ओर आ रहे थे। आगे-आगे सरपंच का बेटा संतोष हाथ में अख़बार लहराता हुआ चल रहा था ।
"काका ओ काका ! ज़रा बाहर तो आओ, ए देखो हम क्या लाये हैं ...", धरणी की ओर देखकर कुटिलता से मुस्कुराया संतोष और सीधा आँगन में चला आया।
गाँव के लोग सब आपस में खुसर-पुसर कर रहे थे और जैसे ही बाबूजी कमरे से बाहर आये, संतोष ने अख़बार उनकी तरफ़ बढ़ा दिया।
"बेटा मैं कहाँ पढ़ना जानता , तू ही बता दे क्या छपा है अख़बार में ", बाबूजी बोले।
"अरे काका क्या लिखा, क्या नहीं, ये तो फोटू देखकर ही समझ आ जाएगा, देखो तो सही क्या शानदार फोटू छपा है मदन भैया का गोरी मेम जैसी भौजाई और राजकुमार जैसे बेटे के साथ...", कहकर जैसे बम ही गिरा दिया था संतोष ने ।
बाबूजी को काटो तो खून नहीं ! चेहरे का रंग पीला पड़ गया था, जब भीड़ में से किसी ने कहा , "मदन ने ये ठीक नहीं किया धरणी के साथ, पर अब ये किस हक़ से रह रही है घर में ? क्या मदन अब भी इसे पत्नी मानता है ?"
तभी एक दूसरी आवाज़ आयी, "काका जी इतनी बड़ी बात हमसे छुपाई, इस बेचारी के साथ बहुत ज़ुल्म किया , बच्चियों का भी नहीं सोचा मदन भैया ने ? "
कल तक जिन लोगों की नज़र में स्नेह देखा था धरणी ने, आज वही उसे दया की दृष्टि से देख रहे थे । कुछ नज़रें उसे ऊपर से नीचे तक नापती हुई भी दिखी, जैसे उसके अंदर खामियाँ तलाश रही हों , जिससे मदन की बेवफ़ाई का कारण जान सकें।
उस क्षण धरणी को अपनी बेबसी पर रोना आया पर जब बाबूजी पर नज़र पड़ी तो उनकी नीची नज़र देख खुद को संभाला और बोली, "बाबूजी आप अंदर चलिये...और आप सभी अपने घर जाने की कृपा करें, ये हमारे परिवार का मामला है हम संभाल लेंगे।" कभी मुँह न खोलने वाली धरणी को यूँ बोलते सुन बाबूजी भी हैरान थे और गाँव वाले भी, परंतु उस समय सब वहाँ से चले गए।
छोटे से गाँव में बात बिजली की गति से फैल गयी और गाहे बगाहे अलग-अलग बातें धरणी तक आती पर उसने परिवार की इज़्ज़त ख़ातिर चुप रहने में ही भलाई समझी। फिर एक दिन उसके सब्र का बाँध टूट गया, जब चार घर आगे रहने वाली श्यामली दोपहर में धरणी से मिलने आई , हालचाल पूछ कर बोली, "धरणी एक बात कहूँ , बुरा तो न मानेगी?" धरणी ने सर हिलाया तो आगे बोली, "पास के गाँव में मेरा पीहर है और मेरे चाचा का लड़का है गोविन्द, तू कहे तो मैं रश्मि की बात चलाऊँ । 10 वी पास है, हाँ उमर में रश्मि से थोड़ा बड़ा है पर मर्द तो बड़ा भी होए तो चले है , है कि नहीं ? देख मदन भाई की बात ज्यादा फ़ैल गयी तो छोरी का ब्याह करना मुश्किल हो जावेगा, जितनी जल्दी हो सके निपटा दे दोनों को।"
" क्या कह रही हो जीजी !!! रश्मि अभी 10 साल की ही तो होवेगी..." धरणी का कलेजा काँप गया अपनी छोटी सी बच्ची के ब्याह की बात सोचकर। उसका खुद का ब्याह 9 साल की उम्र में हो गया था और 17 साल में गौना कर ससुराल आ गयी थी। उसके बाद जो हुआ वो तो ज़ख्म से नासूर बन चुका था उसके ह्रदय में।
"अरे हमारी बिरादरी में कोई नयी बात है क्या? गोविन्द शहर पढ़ने जाने की कह रहा, तो चाचा उसका ब्याह करना चाह रहे जाने से पहले, फिर गौना तो बाद में कर देना तब तक छोरी को कामकाज सिखा देना घर के", श्यामली बोली ।
"रश्मि पढ़ने में अच्छी है, उसे पढ़ाऊंगी, इतनी जल्दी ब्याह नहीं करना उसका। कहीं उसके साथ भी मेरे जैसे....", धरणी का गला रुंध गया , अपनी बात भी पूरी न कर पायी।
"मैं तो तेरे ही भले के लिए कह रही थी, एक तो बाप नहीं साथ में, उस पर छोरी पढ़ गयी और कोई ऊंच-नीच हो गयी तो क्या करेगी तू अकेली औरत जात? बात मान अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जा और चाचा जी तो ज्यादा दान-दहेज़ भी न मांग रहे । फिर रेखा की भी देखना ... छोरियां राजी ख़ुशी अपने घर चली जावें तो तू भी गंगा नहा लेगी ", श्यामली का एक-एक शब्द तीर सा चुभ रहा था धरणी के ह्रदय में।
"बस !!! जीजी वो घर का दरवाज़ा है, मेहरबानी कर अपने घर चली जाओ और फिर कभी मेरी बच्चियों की चिंता मत करना। बाप न हो साथ, माँ अभी मरी नहीं .... मेरी बच्चियाँ दूजी धरणी नहीं बनेंगी । हाथ जोडू आप जाओ अब ", कहकर धरणी भीतर कमरे में चली गयी और कुण्डी लगा कर फफक पड़ी।
जिस का धणी-धोरी कोई नहीं , उस पर हक़ जमाने हर कोई खड़ा हो जाता है। यही हाल धरणी का हो चला था। जब से मदन ने मुँह मोड़ा था और फिर गाँव में बात फैली, तब से लोगों की नज़रें ही बदल गयी थीं। जो लोग कल तक बड़े साहब की बीवी बोलकर इज़्ज़त देते थे, वही आँखें अब आते-जाते धरणी के बदन को नापती हुई दिखती। सांवले रंग परंतु तीख़े नैन-नक़्श की धरणी दो बेटियों की माँ होकर भी गाँव की युवा लड़कियों को मात देती थी ख़ूबसूरती में। गाँव की संकरी गलियों में आते-जाते कोई उससे बतियाने की कोशिश करता, और बतियाने और मदद करने के बहाने छूने की। फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी... गाँव के हाट से घर का सामान लेकर लौट रही धरणी को ध्यान आया कि रेखा को नए जूते दिलाने है तो सोचा स्कूल से ही उसे जूते पहनाने ले जाए। गाँव के स्कूल का रास्ता खेतों के बीच से जाता था, अभी धरणी आधे रास्ते भी नहीं पहुँची थी कि खेतों के बीच से एक दबी सी आवाज़ उसके कानों में पड़ी । पहले तो उसको लगा कोई जानवर होगा, पर थोड़ा ही आगे चली थी कि फिर एक घुटी सी चीख सुनाई दी, जैसे कोई मदद के लिए पुकार रहा हो।
तेजी से उसके कदम खेतों की ओर बढ़ चले पर बहुत देर इधर-उधर ढूँढने पर भी जब कोई नहीं दिखा तो ये सोचकर कि उसे भ्रम हुआ होगा, वापस सड़क की ओर चल पड़ी और तभी उसकी नज़र एक स्कूल के बस्ते पर पड़ी । पास जाकर देखा तो तुरंत पहचान गयी वो रश्मि का बस्ता था जो रोज़ स्कूल लेकर जाती थी वह। बस्ते को वहीँ पटक वो फिर तेज़ी से खेतों की ओर दौड़ पड़ी और ज़ोर से रश्मि का नाम पुकारते हुए इधर-उधर ढूँढने लगी। हाथ में एक बड़ा पत्थर भी उठा लिया था। उसका दिल दहल गया था ये सोचकर कि कहीं कोई जंगली जानवर न घुस आया हो और उसकी बच्ची की जान खतरे में हो।
बदहवास सी दौड़ती हुई जैसे ही गन्ने के खेतों की ओर बढ़ी तो एक जूता दिखाई दिया ... उसकी लाडली का जूता था। बिजली की गति से खेतों में घुसी और गन्ने की फ़सल के बीचों बीच जो दृश्य देखा , उससे उसके होश खो गए। कुछ क्षण के लिए सन्न रह गयी, रश्मि अर्धनग्न अवस्था में और उसके ऊपर झुका हुआ संतोष। ज़ोर से चीखी धरणी और आव देखा न ताव हाथ का पत्थर संतोष पीठ पर दे मारा। अचानक हुए इस हमले से संभल पाता संतोष, तब तक धरणी ने पास ही पड़ा एक गन्ना उठाया और उसके सर पर वार किया और फिर उसका हाथ रुका ही नहीं । तब तक रश्मि रोती हुई माँ से लिपट गयी और बेटी को संभालती धरणी, संतोष भाग छूटा। बेटी को अपनी ओढ़नी में छुपा कर घर की ओर बढ़ चली धरणी, आँखों में पीड़ा और क्रोध के आंसू थे और दिल में दहशत कि अगर समय पर न पहुँचती तो उसकी मासूम बच्ची के साथ न जाने क्या .....
(क्रमशः)
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