उनकी दास्तान (3)

फिर वो दिन भी आ गया, जब नवाब ने अपने बेड़ों का मुंह अपने मुक़ाम की ओर मोड़ा। बेटे की शादी रचा लेने के बाद उसके क़ाफि़ले को रूख़सत कर रहा था वो गांव और रूखसत कर रहा था उस क़ाफि़ले के साथ अपने गांव की एक बुलबुल को जो कल तक गली-गली कूकती फिरती थी।

जिस तरह उस रंगीन शांम में वे बजड़े सजकर आये थे, वैसे ही सजकर दरिया में खड़े थे। कुछ बजड़े और मिल गये थे जिनमें, उस बुलबुल के बाग़वां ने अपने बाग़ के कुछ बेहतरीन तोहफ़े नजराने के तौर पर नज़र किये थे।

रूखसती की सब रस्में पूरी हो गयीं। होठों की हंसी पिघलकर आंख से आंसू बनकर बह निकली। गले मिलने के बाद हाथ हवाओं में उठे और ख़ुदाहाफि़ज़ कहने लगे तो चप्पुओं ने लहरों के सीने पर मिलने-बिछुडने का अहसास कराने वाली छप-छप का राग छेडा। बजड़े पानी का सीना चीरकर चल पडे अपने मंजि़ल-ओ-मुक़ाम की तरफ।

बारात की विदार्इ के बाद थोडी ही देर में सब लौट गये। लेकिन वो इन्तज़ार की मूरत बना उन दूर जाते हुए बजड़ों को देखता रहा, जिनमें से एक पर लहरा रहा था लाल दुप्पटा और दरियार्इ लहरों की कलकल में दिलरूबा की तरंगें घुलकर धीमी और धीमी होती जा रही थी। बजड़े जब आंखों से ओझल हो गये ओैर दिलरूबा की आवाज़ सिफऱ् कानों में सिमट के रह गयी तो एक बेदम की मानिन्द वो झुक गया और उस ज़मीन को चूमने लगा जहां उसके महबूब के मुबारक क़दम पडे थे। उसके होंठ रेत के उन ज़र्रों को नहीं छू सके क्योंकि उस जगह पड़ा था एक सुर्ख गुलाब जो उसके लबों से टकराया और उसने गुलाब को खुदाई रहमत की तरह आंखों से लगा लिया। निहाल हो गया उसे कलेजे से लगाकर और आंखे बन्द कर खो गया अपनी महबूबा के ख़्यालों में।
        अब जो रात आयी थी वो अकेली नहीं थी। अपने साथ लायी थी यादें!!! मुहब्बत में ऐसा ही होता है, अगर पत्थर भी गिरे तो पायल की झन्कार सुनार्इ देती है। यही हाल उस परवाने का हुआ। दरिया की लहरों की आवाज़ उसे दिलरूबा पर उभरता हुआ उसकी माशूक़ का गीत सुनार्इ पड रहा था जिसमें उसे वो बुला रही थी।

वो रूक ना सका और चल पड़ा। मानों उसके क़दमों को मंजि़ल का पता हो। वो अपने-आप उठ रहे थे। रास्ते में आये कील-कांटों और पत्थरों की परवाह किये बग़ैर। दरिया किनारे पहुंचने पर सख़्त पत्थर की छुअन ने उसकी नीन्द को तोडा। वहां तो कोर्इ नहीं था। कलकल करता पानी जैसे उसकी दीवानगी का मज़ाक उड़ा रहा था। पेडों की शाखों पर सोयी हुयी ख़ामोश चान्दनी उसकी उदास आंखों में और कलकल करते दरिया की बेकली उसके दिल में सिमट आयी थी।

आंखों में आयी उदासी को उसकी आंखों के नूर की तस्वीर ने ज़्यादा देर तक बसेरा नहीं करने दिया। कल-कल कर रहे दरिया को एक लम्हा भी रूके बिना अपने महबूब से मिलने जाते देख दिल की बेकली को एक मजबूत इरादे के साथ निकाल फेंका। उसे अपनी आंखों का नूर और दिल का करार चाहिये था। वो चाहे दरिया के उस पार हो या दुनियां के उस पार। अपने महबूब से मिलने को उस बेताब-जि़ग़र ने ये भी नहीं सोचा कि इतने बडे़ दरिया को कैसे पार करेगा? उसके लिये जैसे ये कोर्इ मुशिकल बात ही नहीं थी। वो कूद पड़ा और चल पड़ा अपने महबूब का दीदार करने।

      उधर नवाबजादी के गांव में जश्न मनाया जा रहा था। अपने भार्इ की दुल्हन को सजाकर सजी हुर्इ फूलों की सेज पर बैठाकर अपनी दुनियां में आयी तो घेर लिया यादों ने। हवेली से बाहर कैसे निकले? इस सवाल ने परेशानियों के घेरे खड़े कर दिये। आंखें सोच में सिकुड़ गयीं। दिल की बात ज़ाहिर ना कर सकी... किसे कहे? उसकी सहेली और हमराज भी तो इसमें कुछ नहीं कर सकती थी।

कहते हैं जो बात जुबान न कह सके वो आंखें बयांन कर देती है। इसीलिये आंखों को दिल की जुबांन कहते हैं। उसकी आंखों ने भी चुग़ली की और उसकी सहेली दिलासा और भरोसा देकर उसे हवेली की छत पर ले आयी। शामियाना तानने का एक रस्सा वहां पड़ा था जिसे हवेली के पिछवाड़े में लटका दिया। लेकिन.... वो रस्सा हवेली की छत से ज़मीन तक नहीं पहुंच पाया... काफ़ी छोटा रह गया। जिस नाज़नींन ने कभी अपनी हवेली की एक सीढ़ी तक नहीं फान्दी थी, इतनी उंचार्इ से कूदने पर उस नाज़ुक बदन की क़मर टूट सकती थी।

जब ये तदबीर कामयाब ना हो सकी तो नवाबज़ादी हवेली की छत से कूदने को तैयार हो गयी। लेकिन उस क़नीज़ ने भरोसा दिलाकर सब्र रखने को कहा। उसने वादा किया कि वो नवाबज़ादी को उसके दिलबर से ज़रूर मिलवायेगी। और तब फ़लक की तरफ़ देखते हुए एक हिकारत भरी हंसी के साथ अपने सर से दुप्पटटा खिसकाकर जूडे को बिखेरा। जैसे हजारों नागिनें सौ-सौ बल खाकर उसकी एडियों के पीछे तक रेंगने लगी। हर कोर्इ उस वक़्त उसकी ज़ुल्फ़ों और बालों को किसी बड़ के पेड़ की जटाएं समझने की भूल कर सकता था। तब उसने वो किया, जिसकी नवाबज़ादी को ख़्वाबों में भी उम्मीद नहीं थी कि दोस्ती और वफ़ादारी के लिये कोर्इ अहसानमन्द इतनी क़ीमत भी चुका सकता है। अपने लम्बे बालों को दसने रस्से से गांठ लगाकर लटका दिया और अब लवाबज़ादी को छत से कूदने की ज़रूरत नहीं रह गयी थी।

जिसने कभी अपने हाथों से ख़ुदके रेशमी बालों की चोटी तक ना बनार्इ हो वो कैसे उस रस्से को मजबूती से पकडती? लेकिन... मुहब्बत के नशे ने एक अलग ही जोश और ताक़त उस हुस्न की मलिलका में भर दी। हाथों में जलन हुयी, छाले पड़े और फूट गये। जिस्म के ख़ून ने बाहर आकर कुछ ठण्डक पहुंचाने की नाकाम कोशीश की और आखिरकार वो ज़मीन तक पहुंच ही गयी। अब ये कौन जानता है कि ज़मीन तक या ज़मीन तक पहुंचने की ख़ुशी में आसमान से भी उपर?

ऐसे में भी वो दिलरूबा ले जाना नहीं भूली थी। दिलरूबा हाथों में लिये वो जो कभी अपनी हवेली के अलावा कहीं पैदल नहीं गयी थी आज गलियों की उंची नीची राहों से गुजर रही थी। हमेशां मोरनी की तरह धीरे-धीरे चलने वाली आज जैसे हवा से टक्कर लेना चाहती थी। जिसका दीदार भी लोगों को नामुमकिन था, वो देख सकते थे उसे उन गलियों में।

लेकिन वो अपने ही साये के पीछे परछार्इ सी चली जा रही थी। उसे लग रहा था जैसे दरिया के उस पार कोर्इ उसका इन्तज़ार कर रहा था और उसे किसी को दिलरूबा की धड़कने सुनाने के लिये जाना था। ना रास्ते के पत्थरों की फि़क्ऱ थी ना कांटों का दर्द। ना अकेले होने का ड़र था ना रात घिर आने की चिन्ता।
दरिया के किनारे बजड़े एक कतार में रस्सों से बन्धे थे। वहां कोर्इ नहीं था। सारा गांव नवाब की दावत का लुत्फ़ उठा रहा था और इधर नवाबजादी छाले पडे और ख़्ाून रिसते हुए अपने नाजु़क हाथों से एक बजड़े के भारी रस्से को खोलने की कोशीश कर रही थी। किसी तरह रस्सा खोलकर उन ज़ख़्मी हाथों से चप्पुओं को सम्भाला और पतीले में चम्मच चलाने से अन्जान हाथ उन चप्पुओं को चलाने में नाकाम होकर बाहें अब उखड़ी अब उखडी होने लगी। थक कर चूर-चूर हो गयी तो चेहरे पर परेशानियों के निशान उभर आये। सितारे उसकी बेबसी के गवाह थे और चाँद मजबूर सा ख़ामोशी से अपना सफ़र तय कर रहा था।

मुहब्बत अन्धी होती है, दीवानी होती है और दीवाने नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाते हैं। उनकी दीवानगी ने भी रंग दिखाया। लहरों को शिकस्त देकर हर मुशिकल को दर किनार कर वो दीवाना आ पहुंचा था। चान्दनी ने उसके चेहरे की ताम्बर्इ रंगत पे पानी की बून्दों को मचलकर प्यार करते रहने को बेताब देखा। किसी जंगबाज की मजबूत ढ़ाल की तरह उभरे हुए सीने और चौड़े बाजुओं से लहरों की आशनार्इ के नज़ारे देख सितारे अपनी किस्मत पर खुश हो रहे थे।

और इस तरह.... उनकी मुलाक़ात हुर्इ थी। एक दूसरे की बाहों में बाहें ड़ाले एक दूसरे आंखों में आंखे ड़ाले ख़ामोश उस बजड़े पर अपनी दुनिया में खोये हुए थे। उनकी नाव दरिया के धारों की हमराह होकर आहिस्ता-आहिस्ता एक नयी मंजि़ल का रास्ता तय रही थी। उनकी बेक़रारी के गवाह बने चान्द-सितारे उनके मिलन का ये नज़ारा देखकर सकून से बादलों की ओट में चले गये और अन्धेरे में वे दोनों अब एक साया नज़र आ रहे थे।

बहते-बहते नाव उस जगह आ पहुंची, जहां हर आदमी का सफ़र ख़त्म हो जाता है। जो हर मुसाफि़र की आखि़ारी मंजि़ल है। जहां आने के बाद कोर्इ वापस नहीं जाता। और यहीं आकर अपनी कश्ती को किनारे पर लाने के लिये उन्होंने पतवार उठायी। दुनियां की कोर्इ और जगह उन्हें अपनी मुहब्बत के लिये न मिल सकी थी। यही एक जगह थी जहां उन्हे ज़माने की नज़र नहीं लग सकती थी।

हां..... वो एक कबि्रस्तान था और इस वक़्त वो दोनों एक क़ब्र के सिंहासन पर बैठे थे। इन्सान उनके अलावा कोर्इ नहीं था औ मुदोर्ं का उन्हें कोर्इ खौफ़ नहीं था। जु़बान की जगह सिफऱ् आंखे बात कर रही थी और दिलरूबा की आवाज़ ही उन दोनों की आवाज़ थी।


दिलरूबा की आवाज़ ने जैसे उस क़बि्रस्तान में जादू कर दिया था।

 कबि्रस्तानी जानवर और चिडियां अपने-अपने घरों में उस मौसिकी का लुत्फ़ उठा रहे थे। हवा की सांय-सायं जैसे वहां दफ़नाये गये मुर्दों की आवाज़ हो और एक लम्बे अर्से के बाद किसी ने उन्हें जगाकर उन्हें खुराक़ दी हो जिसकी एवज में वो दुआएं दे रहे हों।

क्रमशः
लेखक - हुकम सिंह जी 

Comments

Popular posts from this blog

Happiness

Chap 28 HIS RETURN…..

Kahte hai….