एक बेनाम ख़त #2
आज फिर बेचैनी है शाम से ... नहीं ! कारण तुम्हारी व्यस्तता नहीं उसकी तो आदत हो चली अब, यूँ भी हमारे बीच कबसे अबोला है, शब्दों का नहीं विचारों का, शब्द हमारे बीच से यदा-कदा गुज़रते रहते हैं बस तुम्हारे मेरे बीच पुल नहीं बनाते.... कारण मेरी तन्हाई भी नहीं वो तो सहेली बन चुकी मेरी... शाम पूरे शबाब पर है जैसे विदाई की दहलीज़ पर दुल्हन सिन्दूरी आसमान सिरहन सी देती ठंडी बयार मानो धीमे-धीमे बज रही हो शहनाई दूर हल्के से टिमटिमाते तारें जैसे सजी-धजी बारात मानो चाँद के आने की राह देख रहें हो पर फिर भी मन बेचैन है... आज फिर से याद आया है वो ख़्वाब जो मेरी आँखों में झिलमिलाया था कभी, अपनी तन्हाई के सिवा किसी से साझा नहीं कर पाई , तुमसे भी नहीं, मेरे ख़्वाब अज़नबी जो लगते थे तुम्हें... बहुत हिफाज़त से संभाल कर पलकों में छुपाया था, अश्क़ों में नम वो ख़्वाब बहुत देर तक ठहरा था भीतर फिर ख़ुद ही डूबता चला गया उस खारे समंदर में और कभी नहीं उबरा... मैंने भी कहाँ रोकने की कोशिश की रोक कर करती भी क्या आख़िर कब तक बचा पाती, उसे सैलाब के संग बहने से, हमेशा के लिए खो जाने से... बस उस...