एक बेनाम ख़त #1

तुम हमेशा कहते हो
"तुम्हें मुहब्बत है मुझसे"
पर ये कैसी मुहब्बत है
जिसे मैं महसूस भी नहीं कर पायी,
क्या ये वैसी मुहब्बत है....
जो पिंजरे में पाले हुए पंछी से होती है?
या अपनी खरीदी हर उस चीज़ से
जिसे बड़ी हिफाज़त से रखा है घर के महफूज़ कोने में?
मुझ पर भी तो कुछ लम्हें खर्च हुए है तुम्हारे
और तुम घाटा उठाओ
ऐसे बुरे व्यापारी भी नहीं
इसलिए मुझ पर कोई नज़र ठहरे
ये तुमसे कभी बर्दाश्त नहीं हुआ,
कुछ साँसें भी लेती हूँ तो लगता है
एहसान है किसी का,
उड़ने को आसमाँ है या नहीं
कैसे सोचूँ ,
अभी तो ज़मीं ही तलाश रही हूँ,
हर क़दम मेरा शायद मुझे दूर ले जाए तुमसे
क्यूंकि तुम साथ कब चले हो,
या तो आगे चले या चले ही नहीं....
कितनी रातों से सोई नहीं ये आँखें
कि कहीं फिर वो ख़्वाब बेचैन न कर दे
कहीं किसी दिन जुटा कर हिम्मत
मैं चल न पडूँ एक अनजान सफ़र पर
फिर लग जाए मुझ पर इल्ज़ाम
स्वार्थी होने का !
जब-जब जीना चाहा तब यही तो तमगा दिया तुमने
और मेरी कितनी ही रातें भीगती चली गयीं
सहर भी हुई तो धुंध भरी
आज तक दिखा नहीं पायी धूप
अपने ख़्वाबों को,
अपनी ख़्वाहिशों को,
अब तो डरती हूँ
वो ज़िंदा भी हैं कि नहीं
मुझे तो खुद अपने भी ज़िंदा होने पर शक़ होने लगा है अब !
©विनीता सुराना 'किरण'

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