राख़

देख रही हूँ अचरज से
उस आसमाँ पर फैली राख़
सब कुछ तो है उस राख़ में....
बेचैन ख़्वाब
अधूरी मृत हुई ख्वाहिशें
कुछ गुमशुदा अपने
जिनके दूर कहीं टिमटिमाने का भ्रम
आज भी पाले हैं आँखें
शायद उसी राख़ में कहीं दबी हैं
अस्थियाँ उन दुआओं की
जो सफ़र पूरा न कर सकीं
और झुलस कर खो बैठीं अपना असर
हर दिन मिलता है ईंधन उस राख़ को
टूट कर बिखरती हसरतों का
और फिर सुलग उठती है
भीतर गहरे तक दबी
चिंगारियाँ ...
शायद वहीँ झुलस गए सन्देश भी
जो भेजती रही 'तुम्हें'
इस आस में
कि शायद 'तुम' भी
मेरी तरह बेचैन होकर
तलाशने आओगे उस राख़ में
हमारे अधखिले ख़्वाब
अधूरे वादे
अधूरी रस्में
बेजान कसमें.....
थकने लगी हैं आँखें अब
सोना चाहती हूँ,
एक बेख़्वाब नींद के आगोश में
क्यूँकि अब और ख़्वाब देखने से
डरने लगी हैं आँखें..
नहीं देना चाहती अब और ईंधन
उस सुलगती राख़ को !
©विनीता सुराना 'किरण'

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