ग़ज़ल
कि इसका कोई इक ठिकाना नहीं है
रखो फ़ासले अब ज़रा ख्व़ाब से भी
हकीक़त से आँखें चुराना नहीं है
नुमाइश न कर दौलत-ए-हुस्न की अब
भरोसे के काबिल ज़माना नहीं है
अजीज़ों के दर पर ज़रा कम ही जाना
अदब का कहीं अब खज़ाना नहीं है
मिले फुर्सते बात दिल की सुनाना
कोई और दिलकश तराना नहीं है
ज़ियापाश* है वो तिमिर में ‘किरण’ सी
पराई है बिटिया, जताना नहीं है
©विनिता सुराना ‘किरण’
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